एक आकाश गंगा तुम
एक निहारिका मैं
अगनित तारों सूरज से
भरे तुम
कितने ही नजारे
समाए हुई मैं
एक काल से
जलते हुए तुम
एक समय से
धधकती हुई मैं
दूर सुदूर ब्रह्मांड में
बसाये हुए तुम
और
कुछ प्रकाश दूरी पे
ठिठकी हुई मैं
सदियों से अपनी ओर
खींचते तुम
अनादि से तुम्हे
सम्मोहित करती हुई मैं
सदियों के इस
रस्साकशी में
न जीते हो तुम
और न हारी हूं मैं
तो आओ
इस "मैं" को मिटा कर
इस "तुम" को भुला कर
बस राख राख
धुआं धुआं हो जाए
तितली के दो पंख सम
आज से ,अभी से
तितली 🦋 निहारिका
हो जाए
और फिर जन्म दे हम
अगनित तारों को,
सौर्य मंडलों को,
और
अनेकों ऊर्जा पिंडों सी
तुम्हारी और मेरी
अनंत संततियो को !!
सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंअच्छी और गहन कविता।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर🌻♥️
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएं"अनंत संततियो को"
गहन भाव विश्व कल्याण के।
अप्रतिम।
bahut pyari rachna :)
जवाब देंहटाएंअति उत्तम
जवाब देंहटाएंगहन भाव