कहा था उसने...
सुनो
बात ...क्यों आजकल तुम
बेबाक यूं करती नहीं ?
हल्दी ये उदासी की
क्यों इन आंखों से
ढलती नहीं ?
कहा था मैंने...
सुनो ...
थी ज़िंदगी तब
इक ख़्वाब जैसे
उसके उफक का थी मैं
महताब जैसे।
बुने वक्त ने फिर
ताने बाने, कैसे कैसे
हुई ज़िंदगी हरा सा ज़ख्म
सुलगता दाग़ जैसे
आग सीने में मेरे
जाने क्यों अब जलती नहीं
कि हूं शमा जिसकी
परवाने को
कमी मेरी खलती नहीं
बस इसलिए
पीली सी इन आंखों से
उदासी की हल्दी
ढलती नहीं
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