2014 में जब देश में लोकसभा का चुनाव चल रहा था, हर ओर लोगों के दिलो दिमाग पर एक ही नेता के नाम की धूम थी। वह नाम था गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी का। देश के मतदाताओं ने किसी की बात नहीं सुनी, नरेन्द्र मोदी की बात पर भरोसा किया और उन्हें प्रधानमंत्री पद के लिए प्रचंड बहुमत से चुना। शायद लोगों को इस बात का विश्वास था कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही देश में आमूलचूल परिवर्तन हो जाएगा। पर प्रधानमंत्री बनने के 18 माह बाद भी देश में कोई परिवर्तन नहीं नजर आया। न गुड गवर्नेंस दिखा, न ही महंगाई कम हुई, न ही भ्रष्ट्राचार कम हुआ और न ही देश में बलात्कार जैसी अपराध की घटनाएं कम हुर्इं। उल्टे देश को कुछ नई घटनाओं का सामना करना पड़ा। मसलन ह्यलव जिहादह्ण, ह्यघर वापसीह्ण, आरक्षण खत्म करने की वकालत जैसे नए मुद्दे गढ़े जाने लगे। प्रधानमंत्री बनने के बाद भी नरेन्द्र मोदी के तेवर विपक्षी नेता जैसा ही दिखता रहा। पूरे देश में भाजपा के शीर्ष नेताओं पर भी एकाधिकार कायम करने की कोशिश शुरू हो गयी। हर मुद्दे पर अपनी अलग राय रखने में महारत हासिल करने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इन समस्याओं का समाधान ढूंढने के बजाय विपक्ष की आवाज को दबाने के लिए उस पर एक नई तोहमत लगानी शुरू कर दी। दिल्ली में चुनाव आया तो उन्होंने अरविन्द केजरीवाल को निशाने पर ले लिया और उनके गोत्र पर सवाल खड़ा दिया। बिहार का चुनाव आया तो उन्होंने नीतीश कुमार के डीएनए पर सवाल खड़ा कर दिया। दिल्ली की तरह बिहार के चुनाव में भी पूरा प्रचार अभियान खुद पर केन्द्रित कर लिया। नतीजा यह निकला कि पब्लिक का मूड बदल गया। जो पब्लिक लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के नाम की माला जप रही थी, उसी पब्लिक ने दूसरा विकल्प ढूंढना शुरू कर दिया। दिल्ली में भारी परायज मिलने के बाद भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश की जनता का मूड नहीं समझा और बिहार के चुनाव में फिर वही राग अलापना शुरू कर दिया। अब बिहार के परिणाम सामने हैं। यहां भी मोदी के गठबंधन को महा हार का सामना करना पड़ा है। प्रधानमंत्री को यह समझना चाहिए कि देश की जनता कभी किसी के पीछे चलने की आदी नहीं है। उसे विकास के साथ ही भरपूर स्नेह, प्यार और आपसी भाईचारे की भावना भी चाहिए। उसे बगैर स्नेह, प्यार और भाईचारे के कोरा विकास की बात सहज मंजूर नहीं है।
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