युद्ध व मानव तथा
दाशराज्ञ-युद्ध
आज सिन्धु सतलुज व्यास व रावी नदी के जल में
से पाकिस्तान को जल की एक बूँद भी नहीं देंगे के समाचार पर भारत-आर्यावर्त के इतिहास
के एक अति महत्वपूर्ण पुरा कालखंड की, वेदों में प्रमुखता से वर्णित रावी नदी तट
पर हुए दाशराज्ञ युद्ध की स्मृतियाँ पुनः मस्तिष्क में जीवंत
होने लगती हैं जो आर्यावर्त का प्रथम महायुद्ध था जिसने विश्व इतिहास की दिशा बदल
दी जिसका एक प्रमुख कारण जल-बंटवारा ही था |
आज हम चाहे जितना कहते रहें कि आपसी विवादों, झगड़ों, मसलों, मामलों,
विरोधों का समाधान वार्ताओं से होना चाहिए
परन्तु एसा होता नहीं है, न कभी हुआ, न इतिहास में न वर्त्तमान में, न भविष्य में
भी एसा होने की संभावना है, क्योंकि आपसी विरोध मूलतः विचारधाराओं का होता है जो
वर्चस्व-स्थापना, आर्थिक, धर्म, कभी ‘विनाशाय च दुष्कृताम’ या अन्य विविध कारणों
का कारण बनता है | एक विचारधारा कभी दूसरी विचारधारा को मान्यता नहीं देती चाहे वह
उससे श्रेष्ठ ही क्यों न हो, इसका कारण है उस विचार वर्ग का अहं | अतः युद्ध
अनिवार्य होजाता है | महाभारत युद्ध के अंत में गांधारी के कहने पर कि कृष्ण यदि
तू चाहता तो युद्ध रुक सकता था, कृष्ण का यही उत्तर था कि माँ मैं कौन होता हूँ
अवश्यंभावी के सम्मुख, युद्ध होते रहेंगे |
अतः भूमंडल या किसी क्षेत्र व देश की
राजनैतिक व सामाजिक दिशा व दशा सदैव युद्धों से ही निर्णीत होती रही है | युद्ध
करना अर्थात आपसी संघर्ष मानव का मूल कृतित्व रहा है| यदि संघर्ष के लिए विरोधी
समुदाय उपस्थित नहीं है तो भाई-भाई ही युद्धरत होते रहे हैं| युद्धों का मूल
अभिप्राय वर्चस्व की स्थापना होता है जिसका कारण आर्थिक एवं विचारधाराओं की
स्थापना व प्रसार होता है | मानव इतिहास के बड़े– बड़े युद्ध जिन्होंने भूमंडल की
दिशा व दशा को परिवर्तित किया है, प्रायः भाई-भाइयों के मध्य ही हुए हैं | विश्व
के सर्वप्रथम युद्ध देवासुर संग्रामों में देव व असुर भी भाई भाई ही थे | यद्यपि ऋग्वेद में
युद्ध से मानव के अहित का स्पष्ट उल्लेख है --
यत्रा
नरः समयन्ते कृतध्वजों यस्मिन्नाजा भवति किंचन प्रियं |
यत्रा
भयन्ते भुवना स्वर्द्द्शस्तत्रा न इन्द्रावरुणाधि बोचतम |----ऋग्वेद मंडल-७
सू.८३ ...
---जहां
मनुष्य अपनी अपनी ध्वजाएं उठाये हुए युद्ध मैदान में एकत्र होते हैं, ऐसे
युद्धों से मानवों का अहित ही होता है | हे इंद्र व वरुण !
आप सुख शान्ति जैसे स्वर्गीय स्थिति के पक्षधर हम सबके संग्राम में रक्षण प्रदान
करें |
आज भी विश्व में अधिकाँश देशों में
लोकतांत्रिक व्यवस्था है परन्तु चुनावों में मत (वोट- अर्थात् अपनी विचार धारा की
स्वीकृति ) प्राप्ति हेतु एक ही देश के नागरिक आपस में छल, बल व धन आधारित युद्धरत
होते हैं | प्रायः राजनैतिक पार्टिया किसी एक व्यक्ति के बलबूते पर ही आगे चलती
हैं |
गणतंत्र व राज्यतंत्र ---गणतंत्र या लोकतंत्र कोई नवीन व्यवस्था नहीं है अपितु
इसकी अवधारणा वैदिक काल से ही चली आरही है | वैदिक व्यवस्था में राजा होते हुए
भी लोकतांत्रिक व्यवस्था थी ताकि राजा निरंकुश न रहे| परन्तु पूर्णतः राजा विहीन
गणतांत्रिक व्यवस्था कभी फल-फूल नहीं पाई, सफल नहीं रही | मूलतः यह देखा गया है कि
लोकतांत्रिक व्यवस्था सदैव ही राजतन्त्रिक
व्यवस्था से परास्त होती रही है, सारा इतिहास साक्षी है | वेदों में प्रमुखता से वर्णित
दाशराज्ञ युद्ध जो शायद आर्यावर्त का प्रथम महायुद्ध था, भी
लोकतंत्र की पराजय की कहानी है |
वैदिक काल में भारतीय सभ्यता का
विस्तार दुनिया के सभी देशों में था जिसे जम्बूद्वीप कहा जाता है । लोग विभिन्न जातियों,
जनजातियों व कबीलों में बंटे थे। उनके
प्रमुख राजा कहलाते थे, बीतते समय के साथ-साथ उनमें अपनी सभ्यता व राज्य विस्तार की
भावना बढ़ी और उन्होंने युद्ध और मित्रता के माध्यम से खुद का चतुर्दिक विस्तार का
प्रयास किया। और इस क्रम में कई जातियां, जनजातियां और कबीलों
का लोप सा हो गया। एक नई सभ्यता और संस्कृति का उदय हुआ।
इस क्रम में भारतीय उपमहाद्वीप का पहला
दूरगामी असर डालने वाला युद्ध बना दशराज युद्ध। इस युद्ध ने न सिर्फ आर्यावर्त
को बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया बल्कि राजतंत्र के पोषक महर्षि वशिष्ट
की लोकतंत्र के पोषक महर्षि विश्वामित्र पर श्रेष्ठता भी साबित कर दी।
उस काल में राजनीतिक व्यवस्था
गणतांत्रिक समुदाय से परिवर्तित होकर राजाओं पर केंद्रित होती जारही थी। दाशराज्ञ
युद्ध में भरत कबीला राजा प्रथा आधारित था जबकि उनके विरोध में खड़े कबीले लगभग
सभी लोकतांत्रिक थे|
अधिकाँश हम राम–रावण एवं महाभारत के युद्धों
की विभीषिका से ही परिचित हैं, परन्तु इस बात से अनभिज्ञ हैं कि राम-रावण युद्ध से
भी पूर्व संभवतः 7200
ईसा पूर्व त्रेतायुग के अंत में एक महायुद्ध हुआ था जिसे दशराज युद्ध (दाशराज्ञ
युद्ध ) के नाम से जाना
जाता है। यह आर्यावर्त का सर्वप्रथम भीषण युद्ध था जो आर्यावर्त
क्षेत्र में आर्यों के बीच ही हुआ था। प्रकारांतर से इस युद्ध का वर्णन दुनिया के हर देश और वहां
की संस्कृति में आज भी विद्यमान हैं। इस युद्ध के परिणाम स्वरुप ही मानव के विभिन्न
कबीले भारत एवं भारतेतर दूरस्थ क्षेत्रों में फैले व फैलते गए |
ऋग्वेद के सातवें मंडल में इस युद्ध का
वर्णन मिलता है। इससे यह भी पता चलता है कि आर्यों के कितने कुल या कबीले थे और
उनकी सत्ता धरती पर कहां तक फैली थी। इतिहासकारों के अनुसार यह युद्ध आधुनिक
पाकिस्तानी पंजाब में परुष्णि नदी (रावी नदी) के पास हुआ था। यह एक ऐसा युद्ध
था जिसके बाद भारतीय उपमहाद्वीप में धर्म और इतिहास ने करवट बदली। जिसका
प्रभाव राम-रावण व महाभारत युद्ध जैसा ही था जिसने भारतीय समाज व संस्कृति की दशा
व दिशा निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई |
उन दिनों पूरा आर्यावर्त कई
टुकड़ों में बंटा था और उस पर विभिन्न जातियों व कबीलों का शासन था। भरत
जाति के कबीले के राजा सुदास थे। उन्होंने अपने ही कुल के अन्य कबीलों से सहित
विभिन्न कबीलों से युद्ध लड़ा था। उनकी लड़ाई सबसे ज्यादा पुरु, यदु, तुर्वश, अनु, द्रुह्मु, अलिन, पक्थ, भलान, शिव
एवं विषाणिन कबीले के
लोगों से हुई थी। सबसे बड़ा और निर्णायक युद्ध पुरु और तृत्सु नामक आर्य समुदाय के
नेतृत्व में हुआ था। इस युद्ध में जहां एक ओर पुरु नामक आर्य समुदाय के
योद्धा थे, तो दूसरी ओर 'तृत्सु' नामक समुदाय के लोग थे। दोनों ही हिंद-आर्यों के 'भरत' नामक समुदाय से संबंध रखते थे।
'तृत्सु समुदाय
का नेतृत्व पंचाल के शासक राजा सुदास ने किया। सुदास दिवोदास के पुत्र
थे, जो स्वयं सृंजय के पुत्र थे। सृंजय के पिता का नाम देवव्रत था।
सुदास के सलाहकार महर्षि वशिष्ट
थे जो राजा शासन तंत्र के समर्थक थे |
सुदास
के विरुद्ध दस राजा (कबीले-जिनमें कुछ अनार्य कबीले भी शामिल थे ) युद्ध लड़ रहे
थे जिनका नेतृत्व पुरु कबीला के राजा संवरण
कर रहे थे, जिनके
सैन्य सलाहकार ऋषि विश्वामित्र थे जो लोकतांत्रिक शासन तंत्र के समर्थक
थे। हस्तिनापुर के राजा संवरण भरत के कुल के राजा अजमीढ़ के वंशज थे | पुरु समुदाय ऋग्वेद काल का एक महान परिसंघ था जो
सरस्वती नदी के किनारे बसा था | आर्यकाल में यह जम्मू-कश्मीर और हिमालय के क्षेत्र में राज्य करते थे।
वस्तुतः यह सत्ता और विचारधारा की लड़ाई थी। सबसे
बड़ा कारण पुरोहिताई और जल बंटवारे का झगड़ा था। प्रारंभ में सुदास के
राजपुरोहित विश्वामित्र थे। बाद में मतभेद के बाद सुदास ने विश्वाममित्र को हटाकर
वशिष्ठ् को अपना राजपुरोहित नियुक्त कर लिया था। बदला लेने की भावना से
विश्वामित्र ने पुरु, यदु, तुर्वश,
अनु और द्रुह्मु तथा पांच अन्य छोटे
कबीले अलिन, पक्थ, भलान, शिव एवं विषाणिन आदि
दस राजाओं के एक कबीलाई संघ का गठन तैयार किया जो ईरान, से लेकर अफगानिस्तान,
बोलन दर्रे, गांधार व
रावी नदी तक के क्षेत्र में निवास करते थे |
वास्तव में तो इस युद्ध की पृष्ठभूमि वर्षों पूर्व तैयार हो गई थी। तृत्सु राजा दिवोदास एक बहुत ही शक्तिशाली राजा था जिसने संबर नामक राजा को हराने के बाद उसकी
हत्या कर दी थी और उसने इंद्र की सहायता से उसके बसाए 99 शहरों को नष्ट कर दिया। इंद्र ने धरती पर 52 राज्यों का गठन किया था। इंद्र के विरूद्ध भी कई राजा थे जो बाद में धीरे-धीरे वहां छोटे बड़े 10 राज्य बन गए। वे दस राजा एकजुट होकर रहते थे | यही दस कुल या कबीले संवरण के नेतृत्व व विश्वामित्र के
परामर्श पर एक जुट होगये |
एक ओर वेद पर
आधारित भेदभाव रहित वर्ण व्यवस्था का विरोध करने वाले विश्वामित्र के सैनिक थे तो दूसरी ओर एकतंत्र और इंद्र की सत्ता को कायम करने
वाले गुरु वशिष्ठ की सेना के प्रमुख राजा सुदास थे।
दासराज युद्ध को एक दुर्भाग्यशाली घटना कहा गया है। इस युद्ध में इंद्र और वशिष्ट की संयुक्त सेना के हाथों विश्वामित्र की सेना को पराजय का मुंह देखना पड़ा। दसराज युद्ध में इंद्र और उसके समर्थक विश्वामित्र का अंत करना चाहते थे। विश्वामित्र को भूमिगत होना पड़ा। दोनों ऋषियों का देवों और ऋषियों में सम्मान था, दोनों में धर्म और वर्चस्व की लड़ाई थी। इस लड़ाई में वशिष्ठ के 100 पुत्रों का वध हुआ। फिर डर से विश्वामित्र के 50 पुत्र तालजंघों (हैहयों) की शरण में जाकर उनमें मिलकर म्लेच्छ हो गए। तब हार मानकर विश्वामित्र वशिष्ठ के शरणागत हुए और वशिष्ठ ने उन्हें क्षमादान दिया। वशिष्ठ ने श्राद्धदेव मनु (वैवस्वत) 6379 वि.पू. को परामर्श देकर उनका राज्य उनके पुत्रों को बंटवाकर दिलाया।
दासराज युद्ध को एक दुर्भाग्यशाली घटना कहा गया है। इस युद्ध में इंद्र और वशिष्ट की संयुक्त सेना के हाथों विश्वामित्र की सेना को पराजय का मुंह देखना पड़ा। दसराज युद्ध में इंद्र और उसके समर्थक विश्वामित्र का अंत करना चाहते थे। विश्वामित्र को भूमिगत होना पड़ा। दोनों ऋषियों का देवों और ऋषियों में सम्मान था, दोनों में धर्म और वर्चस्व की लड़ाई थी। इस लड़ाई में वशिष्ठ के 100 पुत्रों का वध हुआ। फिर डर से विश्वामित्र के 50 पुत्र तालजंघों (हैहयों) की शरण में जाकर उनमें मिलकर म्लेच्छ हो गए। तब हार मानकर विश्वामित्र वशिष्ठ के शरणागत हुए और वशिष्ठ ने उन्हें क्षमादान दिया। वशिष्ठ ने श्राद्धदेव मनु (वैवस्वत) 6379 वि.पू. को परामर्श देकर उनका राज्य उनके पुत्रों को बंटवाकर दिलाया।
अर्थात यह युद्ध राम-रावण युद्ध से लगभग १००० वर्ष पहले हुआ था क्योंकि राम के काल (लगभग ५११४ वर्ष ईपू ) में दोनों ऋषियों में वैमनस्य के भाव नहीं दिखाई देते तथा भरतवंश के, रघुवंश की पीढी क्रम के अनुसार ५६वीं पीढी में सुदास हुए हैं और ६८ वीं पीढी में राम |
यद्यपि एक मत के अनुसार माना जाता है कि यह युद्ध त्रेता के अंत में राम-रावण
युद्ध के 150 वर्ष बाद हुआ था। क्योंकि
हिन्दू काल वर्णन में चौथा काल : राम-वशिष्ठ काल वर्णन के अनुसार रामवंशी लव, कुश, बृहद्वल, निमिवंशी शुनक और ययाति वंशी यदु, अनु, पुरु, दुह्यु, तुर्वसु का राज्य महाभारतकाल तक चला और फिर हुई महाभारत। इन्हीं पांचों से मलेच्छ, यादव, यवन, भरत और पौरवों का जन्म हुआ। इनके काल को ही आर्यों का काल कहा जाता है। आर्यों के काल में जिन वंश का सबसे
ज्यादा विकास हुआ, वे हैं- यदु, तुर्वसु, द्रुहु, पुरु
और अनु। उक्त पांचों से राजवंशों का निर्माण हुआ। यदु से यादव, तुर्वसु
से यवन,
द्रुहु
से भोज,
अनु
से मलेच्छ और पुरु से पौरव l
इस
युद्ध में सुदास के भरतों की विजय हुई और उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप
के आर्यावर्त और आर्यों पर उनका अधिकार स्थापित हो गया। इस देश का नाम भरतखंड एवं
इस क्षेत्र को आर्यावर्त कहा जाता था परन्तु इस युद्ध के कारण आगे चलकर पूरे
देश का नाम ही आर्यावर्त की जगह 'भारत' पड़ गया।
यद्यपि कुछ समय बाद ही राजा सुदास के बाद राजा संवरण ने शक्ति बढ़ाकर पंचाल राज्य को अपने अधीन कर लिया परन्तु कुछ समय बाद
ही पंचाल पुन: स्वतंत्र हो गया। रामचंद्र के युग के बाद पुन: एक बार फिर
यादवों और पौरवों ने अपने पुराने गौरव के अनुरूप आगे बढ़ना शुरू कर दिया। मथुरा से
द्वारिका तक यदुकुल फैल गए और अंधक, वृष्णि, कुकुर
और भोज उनमें मुख्य हुए। कृष्ण उनके सर्वप्रमुख प्रतिनिधि थे।
संवरण के कुल के कुरु ने पांचाल पर अधिकार
कर लिया | कुरु के नाम से कुरु वंश प्रसिद्ध हुआ, राजा कुरु के नाम पर ही सरस्वती नदी
के निकट का राज्य कुरुक्षेत्र कहा गया। उस के वंशज कौरव कहलाए
और आगे चलकर दिल्ली के पास इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर उनके दो प्रसिद्ध नगर हुए। भाई भाइयों, कौरवों और पांडवों का विख्यात महाभारत
युद्ध पुनः एक बार भारतीय इतिहास की विनाशकारी घटना सिद्ध हुआ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें