अभिव्यक्ति की आज़ादी और हम
जेएनयू से ‘आज़ादी’ को जो लहर उठ डीयू की ओर जा रही थी उस लहर से हम कैसे
अछूते रहते. जो रास्ता जेएनयू से डीयू की ओर जाता है उस रास्ते पर हमारा आना-जाना लगा
ही रहता है. इस कारण, धूएँ सामान, वातावरण में फैलते आज़ादी के नारों ने हमें भी
उत्साहित किया. पर अब हमारी समस्या हम स्वयं
नहीं, हमारा कुत्ता है.
हमें तो परिवार के सभी सदस्यों ने साफ़ चेता दिया था, ‘अपने के इस बढ़ते
प्रदूषण से बचा कर रखियेगा. इस उम्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी के ख्वाब देखना सेहत
के लिए हानिकारक हो सकता है.’
सत्य तो यह है कि जब से हम सेवा-निर्वृत्त हुए हैं तब से हम सब परिवारजनों की सुविधा का साधन हो गए हैं. हम बाथरूम जाने लगते हैं
तो पत्नी कहती है, ‘इतनी जल्दी क्या है, सारा दिन घर में ही तो रहना है. अभी यूवी
को बाथरूम जाना है. वह आज जल्दी ऑफिस जाएगा.’ हम अख़बार लेकर बैठते हैं तो बहु आकर
कहती है, ‘आप के पास तो पूरा दिन है, अभी मुझे हेड लाइन्स देख लेने दीजिये’. हम
कोई किताब खोल कर बैठते हैं तो मिंटू बोलता है, ‘पहले ज़रा यह मेरे इनकम-टैक्स के पेपर देख लें, कितना टैक्स भरना
है, कितनी बचत और करनी होगी, चेक कर के बता दें. आज ही ऑफिस में डिक्लेरेशन देनी
है.’ धूप सेंकने का मन होता है तो आवाज़ आती है, ‘यूँ निठ्ठले बैठने से तो अच्छा
होगा यह पुराने अख़बार ठीक से तह करके ऊपर रख दो. फिर यह किचन की चिम्मनी भी बहुत
गंदी हो रही है और बाथरूम का .........’
बस ऐसे ही ‘मज़े’ में दिन कट रहे थे की ‘आज़ादी’ की लहर हमें छू कर आगे डीयू
की ओर चल दी. पर इससे पहले कि मन में किसी तरह की कोई उमंग उठती और हम कोई नारा
लगाते हमें सावधान कर दिया गया.
हम तो समझ गए पर हमारा कुत्ता न समझा. वैसे हमारा कुत्ता भी हम पर ही अपना
रौब दिखाता है. वह दबंग कुत्तों को देख कर हमारी टांगो में छिप जाता है पर नन्हें
बच्चों, बुज़ुर्ग महिलाओं और मरियल कुत्तों को देख कर अपने आत्मविश्वास का पूरा
प्रदर्शन करता है. इस कारण कई बार हमें अड़ोसियों-पड़ोसियों से उलटी-सीधी बातें
सुननी पड़ती हैं.
हमारे कुत्ते ने भी जाना कि अभिव्यक्ति की आज़ादी का जीवन में बहुत महत्व
है. टीवी डिबेट्स देखने का जितना चस्का हमें है उससे अधिक हमारे कुत्ते को है. जितना हम अ गोस्वामी की कमी महसूस कर रहे हैं
उतनी कमी वह (अ गोस्वामी नहीं, हमारा कुत्ता) भी महसूस कर रहा है. टीवी पर चलती अनंत चर्चाओं
को देख और सुन उसने भी आज़ादी के ख्वाब देखने
शुरू कर दिए हैं.
उसे भी अभिव्यक्ति की आज़ादी चाहिए है, ऐसा उसने अपने व्यवहार से स्पष्ट कर
दिया है. वह दबंग कुत्तों और नौजवान युवकों और युवतियों पर दिल खोल कर भौंकना
चाहता है. पर यह कार्य हमारी देख-रेख और हमारे संरक्षण में ही करना चाहता है.
अवसर मिलते ही हमारी टांगों की आढ़ लेकर एक दिन वह एक जर्मन शेफर्ड पर बुलंद आवाज़ से भौंकने लगा.
अवसर मिलते ही हमारी टांगों की आढ़ लेकर एक दिन वह एक जर्मन शेफर्ड पर बुलंद आवाज़ से भौंकने लगा.
जर्मन शेफर्ड हमारे कुत्ते की इस बेअदबी पर इतना नाराज़ हुआ की पलक झपकते ही
हम पर टूट पड़ा. हम ऐसे भागे जैसे कभी मिल्खा सिंह भी न भागे होंगे और जैसे-तैसे कर हम जान बचा कर घर पहुंचे.
पर हमारे कुत्ते को तो ऐसा लगा कि जैसे उसने एवेरस्ट पर विजय पा ली है.
अपनी अभिव्यक्ति की आज़ादी का भरपूर आनंद उठाने का उसने तो पक्का निर्णय कर लिया
है. समस्या हमारी है. पहले सिर्फ लोगों की बातें सुननी पड़ती थीं, अब दबंग कुत्तों से बच कर रहना पड़ता
है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें