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मंगलवार, 7 मार्च 2017

"बिखरीं पड़ीं हैं"


                                                   "बिखरीं पड़ीं हैं"    
"बिखरीं पड़ीं हैं"


संवेदनाओं के शब्द भारित 
नेत्र में टिकतें नहीं हैं
आसमां के स्वप्न रंजित 
धूल में बिखरें पड़ें हैं,

विश्वास की पराकाष्ठा हो चली 
निराशा  दिखतें मुझको नहीं हैं 
फिर ये कैसी कलुषित भावना 
मन को यूँ ,घेरे हुयें  हैं,

उड़ने की हर पल मैं सोचूँ  
पंखों में साहस भरें हैं 
अम्बर में छाई है,बदली 
घेरे हुए क्यूँ ! जो मुझे हैं,

ऊँचा उड़ता जो कभी मैं 
पंखों के ताकत के बूते 
कड़ियाँ माया की बँधीं हैं 
पावों में जंजीरें पड़ीं हैं,

बस मैं चाहूँ पार जाना 
स्वप्नों से ना हार जाना 
अपनों ने घायल किया है,

उम्मीदें नईं धूमिल हुईं हैं 
धूल में बिखरीं पड़ीं हैं......... 



 ध्रुव सिंह  "एकलव्य"  
 "एकलव्य की प्यारी रचनायें" एक ह्रदयस्पर्शी हिंदी कविताओं एवं विचारों का संग्रह
 





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