कविता: उपदेशों की गंगा
सारांश:
हींग लगे ना फिटकरी,
रंग आ जावे, चोखा।
उपदेश दे कर जग में,
ठग भी दे जावे, धोखा।
बस उपदेशों के ऊपर प्रस्तुत है मेरी ये
रचना:
राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता
404/13, मोहित नगर
देहरादून
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उपदेशों की गंगा
गाँव था एक बहुत ही, न्यारा।
जब भी उस गाँव में,
मरता था,
किसी का कोई, प्यारा।
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रोना धोना तब उसके,
परिवार में मच, जाता था।
फिर उसकी अर्थी को,
अच्छे से सजाया, जाता था।
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4 कन्धों पर उसे तब,
शमशान ले जाया, जाता था।
राम नाम सत्य है,
सत्य बोलो गत है,
ऐसा भी बोला, जाता था।
बिछुड़ गया राजेन्द्र,
जिन अपनों से वो,
उनका रो रो कर,
हाल बुरा हो, जाता था।
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ठीक उसी समय,
वहाँ एक सनकी,
ना जाने,
कहाँ से आ, जाता था।
हँस हँस कर ढोल पीट,
शव यात्रा के साथ,
चलते हुवे राजेन्द्र,
वो ऐसा भी कहता, जाता था।
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अरे क्यों रोते हो ?
मृत्यु तो है एक, बहाना।
अज़र अमर आत्मा ने तो,
बदल लिया आज़,
बस अपना चोला, पुराना।
फिर काहे का इतना, रोना।
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रोने की नहीं राजेन्द्र,
जश्न की घड़ी है ये, तुम्हारी।
गीता में तो ऐसा ही,
कह गए कृष्ण, मुरारी।
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तभी अचानक एक दिन,
वक़्त के थपेड़ों की,
उसे पड़ गयी, मार।
एक्सी डेन्ट से जब उसके,
इकलौते बेटे से,
जिन्दगी गयी, हार।
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बिछुड़ने से अपने बेटे के,
वो तब दहाड़ें मार,
राजेन्द्र, रोने लग, गया था।
दूसरों को बोले हुवे,
गीता के उपदेश को,
वो बिल्कुल ही भूल, गया था।
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तभी किसी ने बोला उसे,
क्यों रोते हो भाई ?
मृत्यु तो है एक, बहाना।
अज़र अमर आत्मा ने तो,
बदल लिया आज़,
बस अपना चोला, पुराना।
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तब वो संभला और,
तुरंत ही ये बोला,
क्षमा करो मुझे, भाई।
आज़ समझ गया मैं, क़ि,
बुरा वक़्त आने पर,
जग में सारे उपदेश,
भूल जाता इंसान,
ये ही है कड़वी, सच्चाई।
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अंत में अब राजेन्द्र की,
सुन लो एक बात, हैरत की।
सोने जैसी शुद्ध खरी है,
ये बात, 24, कैरेट की।
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एक ने दुसरे से पूछा,
जग में कौन सा है,
सब से आसान, लेना देना।
दुसरे ने तब पहले से कहा,
किसी से सलाह, लेना।
और किसी को उपदेश, देना।
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हींग लगे ना फिटकरी,
रंग आ जावे, चोखा।
उपदेश दे कर जग में,
ठग भी दे जावे, धोखा।
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धर्म का मुखौटा पहने,
बड़े बड़े पंडालों में,
कुछ ठग भी आज़,
उपदेशों की गंगा, बहाते हैं।
पकड़े जाने पर जेल की,
हवा भी वो, खाते हैं।
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उपदेशों की गंगा जग में,
बस दूसरों के लिए,
ही बहाई, जाती है।
जब अपनी बारी, आती है।
वो गंगा तब ना जाने,
कहाँ सूख, जाती है।
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नहीं रहती वो किसी भी, काम की।
प्रेम से बोलो, जै श्री, राम की।
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कविता: राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता
404/13, मोहित नगर
देहरादून