कविता: बदरा की आत्मकथा
सारांश:
सभी
इस बात का,
ध्यान रखना, ज़्यादा।
जब
भी बरसे बदरा,
इसके पानी का,
तब हो सरंक्षण,
इसी में हम सबका, फायदा।
बदरा की आत्मकथा से शुरू होती
और अंत में इस शिक्षा को देती, मेरी ये
कविता:
राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता
404/13, मोहित नगर
देहरादून
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बदरा की आत्मकथा
उमड़ता घुमड़ता बदरा मैँ,
ना कोई ठौर ना, ठिकाना।
भटकता पथिक
मैँ,
कौन मंजिल मेरी ?
कहाँ
है, जाना ?
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याद
तीख़ी दिलावे वो।
हवा का मुझे, डोलाना वो,
तब मेरा यहाँ वहाँ,
आपस में और,
पर्वतों
से, टकराना।
गरज
कर तब वो अपना,
क्रोध भी राजेन्द्र, दिखाना।
बिजली का भी तब वो, कड़कना।
बच्चों
के साथ साथ,
बड़ों का भी तब,
डर से दुबक, जाना।
उमड़ता घुमड़ता बदरा मैँ,
ना कोई ठौर ना, ठिकाना।
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दिल
कचोट जावे वो।
देख
सूखे खेत में वो,
दो बूढ़ी आँखें,
जर्जर शरीर और,
हथेली की ओट से,
उनका वो मुझे, ताकना।
चातक पंछी का भी वो,
स्वाति नक्षत्र में,
मेरे आने की राह, देखना।
मेरे
भूजल का भी,
राजेन्द्र वो,
पाताल में चले, जाना।
उमड़ता घुमड़ता बदरा मैँ,
ना कोई ठौर ना, ठिकाना।
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नदी
तालाब
और, झरने।
मेरी
इन्तजार में लगे हैं, तड़फ़ने।
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पशु
पंछी और सभी, इंसान।
मुझे
ना देख हो रहे, बेजान।
उनके
लिए तो मैँ हूँ, भगवान्।
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सारे
खेत
और, खलियान।
वो
पेड़ पौधे और, बागान।
बिन
मेरे खो रहे अपनी, पहचान।
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इन
सबका माली मैँ।
सबकी करता रखवाली मैँ।
कर्म
है मेरा सबको,
अच्छे से सींच, जाना।
सबकी बेजान हुई रगों का,
तब फिर से,
जिन्दा
हो, जाना।
नव
अंकुर का तब,
राजेन्द्र, फूटना,
और नव जीवन, पाना।
उमड़ता घुमड़ता बदरा मैँ,
ना कोई ठौर ना, ठिकाना।
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मन को तृप्त कर जावे वो।
मेरी
पहली वर्षा का वो।
धरती
की प्यास, बुझाना।
मिट्टी की सौंधी सुगंध,
का भी वो राजेन्द्र,
तब मुझ तक पहुँच, जाना।
मदहोश मेरा तब हो, जाना।
उमड़ता घुमड़ता बदरा मैँ,
ना कोई ठौर ना, ठिकाना।
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मन को बहुत ही भावें वो।
खेतों में फसलें लहरावें जो।
चहूँ ओर रंगीन फिजायें वो।
मौसम तब हो जावे जो,
राजेन्द्र, बहुत ही, सुहाना।
पत्थरों से भी निकले जो,
संगीत तब और,
पंछियों का भी वो, चहचहाना।
नभ् में सबका वो V
शेप, बनाना।
कोयल की कू कू और,
मेंढक का भी तब,
वो टर्र टर्र वाला,
अपना गीत, गाना।
उमड़ता घुमड़ता बदरा मैँ,
ना कोई ठौर ना, ठिकाना।
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दृष्य वो दिल को, छूवे यहाँ।
मासूम से जो बच्चे वहाँ।
बारिस में भीग रहे जहाँ।
कश्ती
से खेल रहे वहाँ।
रिश्तों
का ना, बंधन जहाँ।
उनका वो खेल खेल में,
राजेन्द्र, लड़ना, झगड़ना।
फिर
से खुश होना और, मुस्कुराना।
ठण्डी
फुहारों से भीगे,
चेहरे से वो,
पानी की बूंदों का, टपकना।
भीगे
बालों की लटों का,
वो माथे पे, चिपकना।
उमड़ता घुमड़ता बदरा मैँ,
ना कोई ठौर ना, ठिकाना।
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याद
बहुत ही, आवें वो।
मन को बहुत रिझावें वो।
पेड़ों
पर पड़े झूले वो,
मस्ती में सबका, झुलना।
हाथों
में भी मेहंदी, लगाना।
हरियाली तीज़ पर वो,
तीज़ फंक्शन में,
सबका हँसना, हँसाना।
सावन के गीतों का भी,
राजेन्द्र, गाना और, गुनगुनाना।
उमड़ता घुमड़ता बदरा मैँ,
ना कोई ठौर ना, ठिकाना।
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देख
आनंद दे जावें वो।
सजी
धजी कांवड़ें वो।
रंग
बिरंगी कतारें वो।
कांवड़ियों का हर की पौड़ी,
पे वो राजेन्द्र,
गंगा जल लेने, आना।
कंधे
पे कांवड़ कतार में,
मीलों पैदल ले के, जाना।
तेज
धूप तो कभी,
वर्षा में चल,
रंग उनके पड़ जाते, काले।
पैरों
में भी पड़ जाते, छाले।
जोरों
से तब मिल कर,
उनका वो,बम बम,
भोले का नारा, लगाना।
अंत में भगवान् शिव पर,
राजेन्द्र, गंगा जल, चढ़ाना।
उमड़ता घुमड़ता बदरा मैँ,
ना कोई ठौर ना, ठिकाना।
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हर वर्ष समय पर आता मैँ।
भरपूर, पानी भर लाता मैँ।
प्यासी धरती रिझाता मैँ।
सफल रहा मेरा इस बरस,
का राजेन्द्र, आना।
काम
मेरा अब हुवा पूरा,
इस बरस तो,
अब अगले बरस,
मुझे फिर से है, आना।
भरपूर पानी भर कर है, लाना।
तब
तक मुझे भूल ना, जाना।
उमड़ता घुमड़ता बदरा मैँ,
ना कोई ठौर ना, ठिकाना।
भटकता पथिक
मैँ,
कौन मंजिल मेरी ?
कहाँ
है, जाना ?
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अंत में अब राजेन्द्र की भी,
सुन लो सभी एक, व्यथा।
बदरा
ने तो सुना दी,
अपनी, पूरी आत्म कथा।
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पर
सुन लो सभी एक, सच्चाई।
ये
आत्मकथा अपनी,
उसने पूरी ना, सुनाई।
अधूरी जो रह गयी उसे,
राजेन्द्र से सुनलो,
भाई।
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कभी
कभी इसे क्रोध भी,
राजेन्द्र, आ, जाता है।
बदरा
ये तब पूरा ही फट, जाता है।
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बाढ़
के साथ साथ,
तब ये कहर भी ढा, जाता है।
बस्तियों को भी बर्बाद कर, जाता है।
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कभी
कभी तो कुछ ऐसा
भी अनोखा हो, जाता है।
पड़
जाता ये कमजोर,
तब वर्ष 2 वर्ष को,
ये गायब ही हो, जाता है।
पानी
नहीं बरसता तब,
और पानी का तो,
अकाल पड़, जाता है।
सारे
खेत खलियान तब,
जाते सूख और,
चहूँ ओर हाहाकार,
राजेन्द्र, मच, जाता है।
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इसलिए राजेन्द्र की सभी,
इस बात का,
ध्यान रखना, ज़्यादा।
जब
भी बरसे बदरा,
इसके पानी का,
तब हो सरंक्षण,
इसी में हम सबका, फायदा।
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पानी
बचाओ देशबढ़ाओ,
ये ही है, आज का, नारा।
नहीं
तो भविष्य में,
बिन पानी आदमी,
क्या करेगा, बेचारा।
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राजेन्द्र की ये व्यथा,
गर् हो जावे, दूर।
मेरे
देश में तब,
पानी हो जावेगा, भरपूर।
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बात
भी बन जावेगी तब,
हम सभी के ही, काम की।
प्रेम
से बोलो, जै श्री, राम की।
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कविता: राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता
404/13, मोहित नगर
देहरादून
बहुत अच्छी सामयिक रचना प्रस्तुति
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