गजल
आँख मेरी भले अश्क से नम नहीं
दर्द मेरा मगर आप से कम नहीं
ये चिराग-ए-मुहब्बत बुझा दे मेरा
आँधियों मे अभी तक है वो दम नहीं
इन्कलाबी हवा हो अगर पुर असर
कौन कहता है बदलेगा मौसम नहीं
पेश वो भी खिराज़-ए-अक़ीदत किए
जिनकी आँखों मे पसरा था मातम नहीं
एक तनहा सफर में रहा उम्र भर
हम ज़ुबाँ भी नही कोई हमदम नहीं
तन इसी ठौर है मन कहीं और है
क्या करूँ मन ही काबू में,जानम नहीं
ये तमाशा अब 'आनन' बहुत हो चुका
सच बता, सर गुनाहों से क्या ख़म नहीं?
-आनन्द पाठक-
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-08-2018) को "आया फिर से रक्षा-बंधन" (चर्चा अंक-3075) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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रक्षाबन्धन की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
bahut bahut dhanyvaad aap ka
हटाएंशानदार जनाब।
जवाब देंहटाएंबहुत ही प्यारी ग़ज़ल हैं।
तन इसी ठौर है मन कहीं और है
क्या करूँ मन ही काबू में,जानम नहीं
Inaayat aap ki
हटाएंबढ़िया शेर
जवाब देंहटाएंAabhaari huN aap ka
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