प्रिय गुलमोहर,
निस्संदेह तुम फल न देते होकिन्तु,जब ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की तपिश से मौत रूपी अग्नि बरसती है तब तुम हरे भरे हो जीवन जीने का संकेत देते हो और जो तुम विशालकाय हो तो तुम्हारी पत्तियां नन्हीं नन्हीं ही तो हैं तुम्हारे पुष्प जो असुगंधित हैं भले ही हैं कोई तोड़ता रोंदता तो नहीं है हे गुलमोहर वृक्ष, तुम्हारी नन्हीं नन्हीं करीने से सजी पत्तियां बहुत सुन्दर लगती हैं और टहनियों में जड़े सुंदर पुष्प और उनका रंग बहुत भाते हैं भाती है तुम्हारी छाया भी ग्रीष्म ऋतु में।
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कृष्ण आधुनिक |
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शनिवार, 9 मई 2020
"हे! गुलमोहर" (कृष्ण आधुनिक)
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सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सर
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार(१०-०५-२०२०) को शब्द-सृजन- २० 'गुलमोहर' (चर्चा अंक-३६९७) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता सैनी
नमस्ते जी, धन्यवाद
हटाएंवाह!
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब!
सुंदर सृजन जिसमें गुलमोहर से जुड़े विभिन्न आयाम चित्रित हुए हैं।
बधाई एवं शुभकामनाएँ।
धन्यवाद जी
हटाएंवाह बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंवाह!!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर...
धन्यवाद जी
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंसार्थक कथ्य के साथ।
धन्यवाद जी
हटाएंकृष्ण आधुनिक
बहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएं