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सोमवार, 28 जून 2021

एक ग़ज़ल : वह शख़्स देखने में तो ---

 

 

एक ग़ज़ल


वह शख़्स देखने में तो लगता ज़हीन है,
अन्दर से हो ज़हीन, न होता यक़ीन है ।      


कहने को तो हसीन वह ,चेहरा रँगा-पुता,
दिल से भी हो हसीन तो, सच में हसीन है।           


सच बोल कर मैं सच की दुहाई भी दे रहा
वह शख़्स झूठ बोल के भी मुतमईन है ।                 


वह ज़हर घोलता है  फ़िज़ाओं में रात-दिन,
उसका वही ईमान है,  उसका वो दीन है ।     


ज़ाहिद ये तेरा फ़ल्सफ़ा अपनी जगह सही,
गर हूर है उधर तो इधर महजबीन है                               


क्यों  ख़ुल्द से निकाल दिए इस ग़रीब  को,
यह भी जमीं तो आप की अपनी जमीन है।                


आनन’ तू  बदगुमान में, ये तेरा घर नहीं,
यह तो मकान और का, बस  तू मकीन है।                 


-
आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ 

ज़हीन = सभ्य ,भला आदमी
मुतमईन है = निश्चिन्त है  ,बेफ़िक्र है
फ़लसफ़ा = दर्शन ,ज्ञान

महजबीन = चाँद सा चेहरे वाली
खुल्द  से= जन्नत  से [ आदम का खुल्द से निकाले जाने की जानिब इशारा है ]

मकीन = निवासी

शनिवार, 19 जून 2021

अनुभूतियाँ: क़िस्त 08

अनुभूतियाँ : क़िस्त 08

 

1
दोनों के जब दर्द एक हैं,
फिर क्यों दिल से दिल की दूरी
एक साथ चलने में क्या है ,
मिलने में हैं क्या मजबूरी ?

 
2
रात रात भर तारे किस की ,
देखा करते  राह निरन्तर  ?
और जलाते रहते ख़ुद को
आग बची जो दिल के अन्दर ।

 
3
कितनी बार हुई नम आँखें,
लेकिन बहने दिया न मैने।
शब्द अधर पर जब तब उभरे
कुछ भी कहने दिया न मैने ।

 
4
छोड़ गई तुम, अरसा बीता,
फिर न बहार आई उपवन में ।
लेकिन ख़ुशबू आज तलक है,
दिल के इस सूने आँगन  में ।
 

 

-आनन्द.पाठक-

 


हर तरफ है मौत फिर डरना डराना छोड़ दो,



हर तरफ है मौत फिर डरना डराना छोड़ दो,

अपने साहिल को भी तुम अपना बताना छोड़ दो ।


अर्थियों के संग भी अपना कोई दिखता नहीं,

आज से अपनों पे अपना हक जताना छोड़ दो ।


जब तलक दस्तक न दे वो दर्द तेरे द्वार पे,

ज़िन्दगी की खुशियों को यूँ ही गँवाना छोड़ दो ।


अस्पतालों से निकलती लाशों को देखो ज़रा,

कह रहीं हैं अपनों से नफ़रत बढ़ाना छोड़ दो ।


ज़िन्दगी में ऐसा मंज़र आएगा सोचा न था,

आदमी से 'हर्ष' अब मिलना मिलाना छोड़ दो ।


-------हर्ष महाजन 'हर्ष'

◆◆◆

आइये समंदर को बदल डालें

 

आइये समंदर को बदल डालें

...

आइये आज समंदर को बदल डालें ,
मेरे  कुछ शेर हैं उनमें वज़न डालें |
मगर बदलूं कैसे बदनसीब मुक़द्दर, 
चलो हाथ की लकीरों में खलल डालें |

_________हर्ष महाजन

गुरुवार, 17 जून 2021

किरीट सवैया (8 भगण 211)

(किरीट सवैया)

भीतर मत्सर लोभ भरे पर, बाहर तू तन खूब
सजावत।
अंतर में मद मोह बसा कर, क्यों फिर स्वांग रचाय दिखावत।
दीन दुखी पर भाव दया नहिँ, आरत हो भगवान
मनावत।
पाप घड़ा उर माँहि भरा रख, पागल अंतरयामि
रिझावत।।
*********
*किरीट सवैया* विधान

यह 8 भगण (211) प्रति पद का वर्णिक छंद है। हर सवैया छंद की तरह इसके भी चारों पद एक ही तुकांतता के होने चाहिए। 12, 12 वर्ण पर यति रखने से रोचकता बढ जाती है।

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया

शारदी छंद "चले चलो पथिक"

(शारदी छंद)

चले चलो पथिक।
बिना थके रथिक।।
थमे नहीं चरण।
भले हुवे मरण।।

सुहावना सफर।
लुभावनी डगर।।
बढ़ा मिलाप चल।
सदैव हो अटल।।

रहो सदा सजग।
उठा विचार पग।।
तुझे लगे न डर।
रहो न मौन धर।।

प्रसस्त है गगन।
उड़ो महान बन।।
समृद्ध हो वतन।
रखो यही लगन।।
=============
*शारदी छंद* विधान

"जभाल" वर्ण धर।
सु'शारदी' मुखर।।

"जभाल" =  जगण  भगण  लघु
।2।  2।।  । =7 वर्ण, 4चरण दो दो सम तुकान्त
*****************

बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
तिनसुकिया

रविवार, 13 जून 2021

एक गीत : ज़िन्दगी से लड़ रहा हूँ --

 एक गीत : ज़िन्दगी से लड़ रहा हूँ ---


ज़िन्दगी से लड़ रहा हूँ ,मैं अभी हारा नहीं हूँ ,

बिन लड़े ही हार मानू ? यह नहीं स्वीकार मुझको ।


जो कहेंगे वो, लिखूँ मैं ,शर्त मेरी लेखनी पर,

और मेरे ओठ पर ताला लगाना चाहते हैं ।

जो सुनाएँ वो सुनूँ मैं, ’हाँ’ में ’हाँ’ उनकी मिलाऊँ

बादलों के पंख पर वो घर बनाना चाहते हैं॥


स्वर्ण-मुद्रा थाल लेकर आ गए वो द्वार मेरे,

बेच दूँ मैं लेखनी यह ? है सतत धिक्कार मुझको।


ज़िन्दगी आसां नहीं तुम सोच कर जितनी चली हो,

कौन सीधी राह चल कर पा गया अपन ठिकाना ।

हर क़दम, हर मोड़ पर अब राह में रहजन खड़े हैं

यह सफ़र यूँ ही चलेगा, ख़ुद ही बचना  या बचाना ।


जानता हूँ  तुम नहीं मानोगी  मेरी बात कोई-

और तुम को रोक लूँ मैं, यह नहीं अधिकार मुझको।


लोग अन्दर से जलें हैं, ज्यों हलाहल से बुझे हों,

आइने में वक़्त के ख़ुद को नहीं पहचानते हैं।

नम्रता की क्यों कमी है, क्यों ”अहम’  इतना भरा है

सामने वाले को वो अपने से कमतर मानते हैं।


एक ढूँढो, सौ मिलेंगे हर शहर में ,हर गली में ,

रूप बदले हर जगह मिलते वही हर बार मुझको।


-आनन्द.पाठक- 


गुरुवार, 3 जून 2021

कहानियां - एक गीत

 कहानियां ....

सुनाएगा जमाना कुछ 

कहानियां ...

वक्त के धारों की

बहते किनारों की 

कहानियां ...

कहानियां..

कहानियां ...


जब हम मिले थे पहले 

दिल धड़का हौले हौले

शोर उठा फिर मुझमें 

ढूंढूं मैं खुद को तुझमें 

इश्क़ ने   कोई दस्तक दी थी 

ख्वाबों में शिरकत की थी 

इश्क़ में .....इश्क़ ने  की कितनी  ...

मनमानियां ...नादानियां ...

आहों में सिमटी 

आहों में लिपटी 

 कहानियां 

तेरी मेरी कहानियां


धड़कन  के ताने बाने 

मैं जानू न तू ही जाने 

उलझी मैं ऐसी उनमें

जलूं फिर बुझूं  मैं खुद में 

तुझमें मैं ऐसे खो  गई 

आधी  थी पूरी हो गई  

जिस्म ने तेरे 

तन से मेरे 

की कितनी 

शैतानियां ... मनमानियां

आग में लिपटी 

आग में झुलसी 

अपनी जवानियां 

तेरी मेरी कहानियां 

कहानियां ...

कहानियां ...

Aha haha ..

Lala ..

Lalaaa..





 Sad part ...


मेरी तेरी है  कहानियां 

कहानियां ...


तुम मुड़ गए क्यों हमदम 

कह न सके कुछ भी हम

कब से खड़े है वहां पर 

छोड़ गए थे जहां पर 

आखों से धोते है, गम 

गुजरे  न वक्त ,न ही हम 

ज़ख़्म हरे है मन में 

न  जान है तन में 

सूने से इस तन  की 

टूटे से इस मन की 

तन्हाइयां  

मीलों तक फैली 

तन्हाइयां 

आंखों की जुबां से 

तेरी आंखों को बुलाती है 

विरानियां

वीरानियां ...


कहानियां ...

तेरी मेरी कहानियां ...


मंगलवार, 1 जून 2021

कभी कभी

 




मैं  किस्सा  हूं सुनो कुछ मैं कहूं 

एक   प्रीत पुरानी सा मैं  जुनूँ 

कुछ  वादों  के, कुछ यादों के  

बनूं एक  तराने  कभी कभी 


मैं दिन हूंं, धूप में   जलूं बुझूं 

मैं हवा हूं  , मैं फिर भी न बहूँ 

 शामों को क्षितिज  सिरहाने  पे

जडूं चांद सितारे  कभी कभी 


मैं बादल, धम धम गरजा करूं 

मैं बिजली सी पल पल मचला करूं 

मैं बूंद हूं , तेरे सिरहाने  पे  

पायल सी छनकू कभी कभी 


मैं फूल  सी खुद ही लरजा करूं 

शबनम  सी  खुद ही  पिघला करूं 

तेरे आंखों   से , तेरे होंठो से 

मचलूं खुद को मैं कभी कभी 


मैं ख्वाहिश हूं दिल में दुबकी रहूं 

मैं चाहत हूं नस नस में पलूं

तन्हा ख्वाबों के मौसम में 

धड़कन सी धडकूं कभी कभी 


मैं  इश्क़ हूं  मैं हर रंग  बनूं 

मैं इश्क़ हूं, मैं हर रंग ढलूं

बस   धूप धनक के रंगों सी 

बिखरूं तुझमें मैं कभी कभी