प्रेम में टूटी स्त्री
के भीतर
पनपने लगते है,
छोटे छोटे कृष्णविवर....
कुछ उसकी
उदास आंखों में..
कुछ उसकी खाली खोखली
आवाज़ में....
और कुछ
उसके उदास और
सूने अंतर्मन में भी ...
उसकी अबोली वेदनाओं और
पीड़ाओं से जन्मे
ये निर्लिप्तता और खालीपन के
गहन अंधेरें,
इन कृष्णविवरों को...
और विस्तार देते है
जो बढ़ते जाते है
अनंत की तरह,
अनंत के साथ ...
फिर ...
दिन बीतते है
बरसों बरस बीत जाते है ....
और ..…
एक दिन ....
प्रेम में टूटी हुई
वो स्त्री ....
बिना कुछ कहे ...
चुपचाप समा जाती है,
इन्ही कृष्णविवरों में .....सदेह !!!!
उम्दा रचना
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