एज ग़ज़ल
तेरे इश्क़ में इब्तिदा से हूँ राहिल ,
न तू बेख़बर है, न मैं हीं हूँ ग़ाफ़िल।
ये उल्फ़त की राहें न होती हैं आसाँ,
अभी और आएँगे मुश्किल मराहिल ।
मुहब्ब्त के दर्या में कागज की कश्ती,
ये दर्या वो दर्या है जिसका न साहिल ।
जो पूछा कि होतीं क्या उलफ़त की रस्में,
दिया रख गई वो हवा के मुक़ाबिल ।
इबादत में मेरे कहीं कुछ कमी थी.
वगरना वो क्या थे कि होते न हासिल।
अलग बात है वो न आए उतर कर,
दुआओं में मेरे रहे वो भी शामिल ।
कभी दिल की बातें भी ’आनन’ सुना कर,
यही तेरा रहबर, यही तेरा आदिल ।
-आनन्द. पाठक-
राहिल = यात्री
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
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