एक ग़ज़ल : एक समन्दर ,मेरे अन्दर...
एक समन्दर , मेरे अन्दर
शोर-ए-तलातुम बाहर भीतर
एक तेरा ग़म पहले से ही
और ज़माने का ग़म उस पर
तेरे होने का ये तसव्वुर
तेरे होने से है बरतर
चाहे जितना दूर रहूँ मैं
यादें आती रहतीं अकसर
एक अगन सुलगी रहती है
वस्ल-ए-सनम की, दिल के अन्दर
प्यास अधूरी हर इन्सां की
प्यासा रहता है जीवन भर
मुझको ही अब जाना होगा
वो तो रहा आने से ज़मीं पर
सोन चिरैया उड़ जायेगी
रह जायेगी खाक बदन पर
सबके अपने अपने ग़म हैं
सब से मिलना ’आनन’ हँस कर
-आनन्द पाठक-
एक समन्दर , मेरे अन्दर
शोर-ए-तलातुम बाहर भीतर
एक तेरा ग़म पहले से ही
और ज़माने का ग़म उस पर
तेरे होने का ये तसव्वुर
तेरे होने से है बरतर
चाहे जितना दूर रहूँ मैं
यादें आती रहतीं अकसर
एक अगन सुलगी रहती है
वस्ल-ए-सनम की, दिल के अन्दर
प्यास अधूरी हर इन्सां की
प्यासा रहता है जीवन भर
मुझको ही अब जाना होगा
वो तो रहा आने से ज़मीं पर
सोन चिरैया उड़ जायेगी
रह जायेगी खाक बदन पर
सबके अपने अपने ग़म हैं
सब से मिलना ’आनन’ हँस कर
-आनन्द पाठक-
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (03-11-2018) को "भारत की सच्ची विदेशी बहू" (चर्चा अंक-3144) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी बहुत बहुत धन्यवाद--सादर
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