समस्या भ्रष्टाचार ही है
आज के हिंदुस्तान टाइम्स में एक दिलचस्प लेख छपा है.
इस लेख का सार है कि भ्रष्टाचार पर मुख्यरूप से
केन्द्रित कर, मोदी सरकार देश की बिगड़ी हुई सामाजिक कल्याण प्रणाली को दुरस्त नहीं
कर सकती.
अर्थात भ्रष्टाचार को घटाना या खत्म करना सरकार का मुख्य
उद्देश्य नहीं होना चाहिये, बस अन्य उपायों के साथ यह भी एक उपाय होना चाहिये.
सुनने में बात बहुत ही तर्कशील लगती है.
लेकिन यह बात इस सच्चाई की पूरी तरह अनदेखी कर देती है
कि इस देश में अगर सरकार एक रुपया खर्च करती है तो सिर्फ पन्द्रह पैसे की ही लाभ लोगों
तक पहुँचता था. (यह बात भारत के एक प्रधान मंत्री ने ही कही थी).
बाकी के पचासी पैसे कहाँ जाते हैं? क्या प्रणालियाँ और
व्यवस्था इतनी घटिया हैं कि इतने पैसे बर्बाद हो जाते हैं?
हर कोई जानता है (और निश्चय ही लेख को लिखने वाली लेखिका
भी जानती है) कि पचासी पैसे भ्रष्टाचारियों की जेबों में ही जाते हैं. और यह
भ्रष्टाचारी सिर्फ सरकारी तंत्र में नहीं हैं, सरकारी तंत्र के बाहर भी हैं. इस
लूट के कई भागिदार हैं और आज सब वह परेशान हैं.
इस सरकार को उखाड़ फेंकने की छटपटाहट आप जो देश में देख
रहे हैं उसका एक मुख्य कारण है कि लूट के रास्ते बंद करने का एक प्रयास किया जा
रहा है. यह छटपटाहट आम जनता में नहीं है, यह तड़प है सिर्फ राजनेताओं में,
बुद्धिजीवियों में, मीडिया में, व्यापारी वर्ग में. सभी सम्पन्न वर्ग पुरानी
रीतियों के लिये तड़प रहे हैं.
हर कोई जानता है कि भ्रष्टाचार की मार सिर्फ गरीब आदमी
को झेलनी पड़ती है. भारत जब स्वतंत्र हुआ था लगभग उसी समय दूसरा विश्व युद्ध समाप्त
हुआ था. उस युद्ध के कारण जर्मनी और जापान
तो लगभग विनाश की कगार पर खड़े थे. फ्रांस और इंग्लैंड की हालत भी खराब थी. चीन की
स्थिति भी (किन्हीं अलग कारणों से) अच्छी न थी. आज वह देश कहाँ हैं और हम कहाँ है?
हम आजतक गरीबी नहीं हटा पाये, इस का मुख्य कारण
भ्रष्टाचार ही है और कुछ बुद्धिजीवियों को लगता है कि भ्रष्टाचार खत्म करना मुख्य
मुद्दा नहीं होना चाहिये. आश्चर्य है!
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