लघुकथा
सारा
दिन तो वह अपने-आप को किसी न किसी बात में व्यस्त रखता था; पुराने टूटे हुए खिलौनों
में, पेंसिल के छोटे से टुकड़े में, एक मैले से आधे कंचे में या एक फटी हुई फुटबाल
में. लेकिन शाम होते वह अधीर हो जाता था.
लगभग
हर दिन सूर्यास्त के बाद वह छत पार आ जाता था और घर से थोड़ी दूर आती-जाती रेलगाड़ियों
को देखता रहता था.
“पापा
वो गाड़ी चला रहे हैं?”
“शायद,”
माँ की आवाज़ बिलकुल दबी सी होती.
“आज
पापा घर आयेंगे?” हर बार यह प्रश्न माँ को डरा जाता था.
“नहीं.”
“कल?”
“नहीं.”
“अगले
महीने?”
“शायद?”
“वह
कब से घर नहीं आये. सबके पापा हर दिन घर आते हैं.”
“वह
ट्रेन ड्राईवर हैं और ट्रेन तो हर दिन चलती है.”
“फिर
भी.”
माँ
ने अपने लड़के की और देखा, वह मुरझा सा गया था. उसकी आँखें शायद भरी हुई थीं. माँ
भी अपने आंसू न रोक पाई.
‘मैं
कब तक इसे सत्य से बचा कर रखूँगी?’ मन में उठते इस प्रश्न का माँ सामना नहीं कर
सकती थी. उस प्रश्न को उसने मन में ही दफना दिया.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (08-02-2019) को "यादों का झरोखा" (चर्चा अंक-3241) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन वो अपनी दादी की तरह लगती है : ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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