एक ग़ज़ल : झूठ का है जो फैला धुआँ---
झूठ का है जो फैला धुआँ
साँस लेना भी मुश्किल यहाँ
सच की उड़ती रहीं धज्जियाँ
झूठ का दबदबा था जहाँ
चढ़ के औरों के कंधों पे वो
आज छूने चला आसमाँ
तू इधर की उधर की न सुन
तू अकेला ही है कारवाँ
जिन्दगी आजतक ले रही
हर क़दम पर कड़ा इम्तिहाँ
बेज़ुबाँ की ज़ुबाँ है ग़ज़ल
हर सुखन है मेरी दास्ताँ
एक ’आनन’ ही तनहा नहीं
जिसके दिल में है सोज़-ए-निहाँ
-आनन्द.पाठक-
झूठ का है जो फैला धुआँ
साँस लेना भी मुश्किल यहाँ
सच की उड़ती रहीं धज्जियाँ
झूठ का दबदबा था जहाँ
चढ़ के औरों के कंधों पे वो
आज छूने चला आसमाँ
तू इधर की उधर की न सुन
तू अकेला ही है कारवाँ
जिन्दगी आजतक ले रही
हर क़दम पर कड़ा इम्तिहाँ
बेज़ुबाँ की ज़ुबाँ है ग़ज़ल
हर सुखन है मेरी दास्ताँ
एक ’आनन’ ही तनहा नहीं
जिसके दिल में है सोज़-ए-निहाँ
-आनन्द.पाठक-
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (08-05-2019) को "मेधावी कितने विशिष्ट हैं" (चर्चा अंक-3329) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'