एक ग़ज़ल
इक क़लम का सफ़र, उम्र भर का सफ़र,
यूँ ही चलता रहे, बेधड़क हो निडर ।
बात ज़ुल्मात से जिनको लड़ने की थी,
बेच कर आ गए वो नसीब-ए-सहर।
जो कहूँ मैं, वो कह,जो सुनाऊँ वो सुन,
या क़लम बेच दे, या ज़ुबाँ बन्द कर ।
उँगलियाँ ग़ैर पर तुम उठाते तो हो ,
अपने अन्दर न देखा, कभी झाँक कर ।
तेरी ग़ैरत है ज़िन्दा तो ज़िन्दा है तू,
ज़र्ब आने न दे अपनी दस्तार पर ।
झूठ ही झूठ की है, ख़बर हर जगह,
पूछता कौन है अब कि सच है किधर !
एक उम्मीद बाक़ी है ’आनन’ अभी,
तेरे नग़्मों का होगा कभी तो असर ।
-आनन्द.पाठक-
अच्छे अशआर हैं।
जवाब देंहटाएंमुकम्मल ग़ज़ल।
इनायत आप की
जवाब देंहटाएंबेहतरीन ग़ज़ल
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