एक
ग़ज़ल
सच कभी जब फ़लकसे उतरा है,
झूठ को नागवार गुज़रा है।
बाँटता कौन है चिराग़ों को ,
रोशनी पर लगा के पहरा है?
ख़ौफ़ आँखों के हैं गवाही में,
हर्फ़-ए-नफ़रत हवा में बिखरा है।
आग लगती कहाँ, धुआँ है कहाँ !
राज़ यह भी अजीब गहरा है ।
खिड़कियाँ बन्द हैं, नहीं खुलतीं,
जख़्म फिर से तमाम उभरा है ।
दौर-ए-हाज़िर की यह हवा कैसी?
सच भी बोलूँ तो जाँ पे ख़तरा है ।
आज किस पर यकीं करे ’आनन’
कौन है क़ौल पर जो ठहरा है ?
-आनन्द.पाठक-
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआभार आप का
हटाएंसादर
वाह 👌
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया।
्धन्यवाद -सादर
हटाएंवाह बहुत ही मनमोहक रचना! 🙏
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ --सादर
हटाएंआग लगती कहाँ, धुआँ है कहाँ !
जवाब देंहटाएंराज़ यह भी अजीब गहरा है ।
खिड़कियाँ बन्द हैं, नहीं खुलतीं,
जख़्म फिर से तमाम उभरा है । समय को उकेरना भी बहुत आसान नहीं होता...। आपने बखूबी ये कार्य किया है अपनी पंक्तियों में।
कॄपा आप की
जवाब देंहटाएंसादर
आपका लेख बहुत अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंAnybody interested in DREAM MEANING