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रविवार, 11 अप्रैल 2021

एक ग़ज़ल

 एक ग़ज़ल 



इक क़लम का सफ़र, उम्र भर का सफ़र,

यूँ  ही चलता रहे,  बेधड़क हो निडर  ।


बात ज़ुल्मात से जिनको लड़ने की थी,

बेच कर आ गए  वो नसीब-ए-सहर।


जो कहूँ मैं, वो कह,जो सुनाऊँ वो सुन,

या क़लम बेच दे, या ज़ुबाँ  बन्द कर ।


उँगलियाँ ग़ैर पर तुम उठाते तो हो ,

अपने अन्दर न देखा, कभी झाँक कर ।


तेरी ग़ैरत है ज़िन्दा तो ज़िन्दा है तू,

ज़र्ब आने न दे अपनी दस्तार पर ।


झूठ ही झूठ की है, ख़बर हर जगह,

पूछता कौन है अब कि सच है किधर !


एक उम्मीद बाक़ी है ’आनन’ अभी,

तेरे नग़्मों  का होगा कभी तो असर ।



-आनन्द.पाठक-


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