एक ग़ज़ल
अभी नाज़-ए-बुतां देखूँ कि ज़ख़्मों के निशाँ
देखूँ ,
मिले
ग़म से ज़रा फ़ुरसत तो फिर कार-ए-जहाँ देखूँ।
मसाइल
हैं अभी बाक़ी ,मसाइब
भी कहाँ कम हैं ,
ज़मीं
पर हो जो नफ़रत कम तो फिर मैं आसमाँ देखूँ ।
जो
देखा ही नहीं तुमने , वहाँ की बात क्या ज़ाहिद !
यहीं
जन्नत ,यहीं
दोज़ख़ मैं ज़ेर-ए-आसमाँ देखूँ ।
मुहब्बत
में किसी का जब, भरोसा टूटने लगता,
तो
बढ़ते दो दिलों के बीच की मैं दूरियाँ देखूँ ।
लगा
रहता है इक धड़का हमेशा दिल में जाने क्यूँ.
उन्हें
जब बेसबब बेवक़्त होते मेहरबाँ देखूँ ।
किधर
को ले के जाना था, किधर यह ले कर आया
है,
अमीरे-ए-कारवाँ
की और क्या नाकामियाँ देखूँ ।
सियासत
में सभी जायज़, है उनका मानना ’आनन’
हुनर
के नाम पर उनकी, सदा चालाकियाँ देखूँ ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
मसाइल = समस्यायें
मसाइब =मुसीबतें
धड़का = डर ,भय,आशंका
ज़ेर-ए-आसमाँ =आसमान के नीचे यानी धरती पर
अमीरे-ए-कारवाँ = कारवाँ का नायक, नेता
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद--सादर
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