ये उलझी उलझी सांसों का
बेमतलबी सी बातों का
निगाहों से निगाहों का
कैसा सिलसिला है जानां ...
खिले खिले गुलाबों का
मदहोश उन शराबों का
खत वाली उन किताबों का
क्या है सिलसिला ओ जानां ...
उस फलक से इस ज़मीन का
दिल में शुबाह से यकीन का
हो प्यार हमें बड़ा हसीन सा
चलाओ सिलसिला अब तो जानां...
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (02-02-2022) को चर्चा मंच "बढ़ा धरा का ताप" (चर्चा अंक-4329) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Thank you so much Sir
हटाएंवाह बहुत खूब
जवाब देंहटाएंThanks @anita_sudhir maam
जवाब देंहटाएंवाह! बहुत ही खूबसूरत
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