एक ग़ज़ल
वक़्त देता, वक़्त आने पर सज़ा है ,
कौन इसकी मार से अबतक बचा है ।
रात-दिन शहनाइयाँ बजती जहाँ थीं ,
ख़ाक में ऎवान अब उनका पता है ।
तू जिसे अपना समझता, है न अपना,
आदमी में ’आदमीयत’ लापता है ।
दिल कहीं, सजदा कहीं, है दर किसी का,
यह दिखावा है ,छलावा और क्या है !
इज्तराब-ए-दिल में कितनी तिश्नगी है,
वो पस-ए-पर्दा बख़ूबी जानता है ।
क्या उसे ढूँढा कभी है दिल के अन्दर.
बारहा ,बाहर जिसे तू ढूँढता है ?
ज़िंदगी क्या है ! न इतना सोच ’आनन’
इशरत-ओ-ग़म से गुज़रता रास्ता है ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
ऎवान = महल , प्रासाद
इज़्तराब-ए-दिल =बेचैन दिल
तिश्नगी = प्यास
पस-ए-पर्दा = परदे के पीछॆ से
बारहा = बार बार
इशरत-ओ-ग़म से = सुख -दुख से
बहुत ही शानदार गजल
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