एक ग़ज़ल
नई जब राह पर तू चल तो नक़्श-ए-पा बना के चल,
क़दम हिम्मत से रखता चल, हमेशा सर उठा के चल ।
बहुत से लोग ऐसे हैं , जो काँटे ही बिछाते हैं ,
अगर मुमकिन हो जो तुझसे तो गुलशन को सजा के चल ।
डराते है तुझे वो बारहा बन क़ौम के ’लीडर’ ,
अगर ईमान है दिल में तो फिर नज़रें मिला के चल ।
किसी का सर क़लम करना, सिखाता कौन है तुझको ?
अँधेरों से निकल कर आ, उजाले में तू आ के चल ।
तुझे ख़ुद सोचना होगा ग़लत क्या है सही क्या है ,
फ़रेबी रहनुमाओं से ज़रा दामन बचा के चल ।
न समझें है ,न समझेंगे , वो अन्धे बन गए क़स्दन ,
मशाल इन्सानियत की ले क़दम आगे बढ़ा के चल ।
सफ़र कितना भी हो मुशकिल, लगेगा ख़ुशनुमा ’आनन’
किसी को हमसफ़र, हमराज़ तो अपना बना के चल ।
-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ
क़स्दन = जानबूझ कर
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरुवार 18 अगस्त, 2022 को "हे मनमोहन देश में, फिर से लो अवतार" (चर्चा अंक-4525)
जवाब देंहटाएंपर भी होगी।
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कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद आप का🙏🙏
हटाएंबहुत ही सुन्दर ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंआभार आप का 🙏🙏
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