एक ग़ज़ल
चढ़ते दर्या को इक दिन है जाना उतर,
जान कर भी तू अनजान है बेख़बर ।
प्यार मे हम हुए मुब्तिला इस तरह ,
बेखुदी मे न मिलती है अपनी खबर ।
यूँ ही साहिल पे आते नहीं खुद बखुद,
डूब कर ही कोई एक लाता गुहर ।
या ख़ुदा ! यार मेरा सलामत रहे ,
ये बलाएँ कहीं मुड़ न जाएं उधर ।
अब न ताक़त रही, बस है चाहत बची,
आ भी जाओ तुम्हे देख लूँ इक नज़र ।
ये बहारें, फ़ज़ा, ये घटा, ये चमन ,
है बज़ाहिर उसी का कमाल-ए-हुनर ।
उसकॊ देखा नहीं, बस ख़यालात में ,
सबने देखा उसे अपनी अपनी नजर ।
खुल के जीना भी है एक तर्ज-ए-अमल,
आजमाना कभी देखना फिर असर ।
ज़िंदगी से परेशां हो ’आनन’ बहुत ,
क्या कभी तुमने ली ज़िंदगी की खबर ?
-आनन्द.पाठक-
सुंदर रचना
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