शब्दों की लाईनों को इंसा
सीमायें मानते हैं
मेरे
यार शरीर को दिल को व जिन्दगी को गर दर्द देना चाहते हो
तो
कर लो प्यार ही प्यार सिर्फ जिन्दगी से जीते जी तुम इक बार
दूर हटो इंसान निर्मित कयानात
से दूर करो दुनिया से खुद को
यहाँ दर्द ही दर्द मिलेगा
जिन लम्हों में प्यार साथ कोई नहीं हैं
प्यार प्रकृति से एंव बेजुबां
से करो जुबां वाले प्यार जानते नही
दुनिया को स्थायी मानते मंजिल जिन्दगी की पहचानते नही.हैं
राह प्रमाणित करते बहुतेरे
ज्ञानी हैं पर ज्ञान को यह मानते नही
नही समझे पथिक अनजाना हमसफर साथियों के विचारों को
पढते लिखते पर शब्दों की
लाईनों को आडी तिरछी सीमायें मानते
सीमा कैसी किसकी पर अर्थ
प्रभाव से इंसान क्या अनजान हैं ?
उदेश्य इनका हित लक्ष्य में,पर
शब्दों को अंगीकार करना व्यर्थ हैं
पथिक अनजाना
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (26-04-2014) को ""मन की बात" (चर्चा मंच-1594) (चर्चा मंच-1587) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'