चुनावों में फूटा 'बुक बम'!
आम चुनावों की सरगर्मी के बीच एक जोरदार 'बुक बम' फूटा है। इस बम के निशाने पर हैं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह। प्रधानमंत्री के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू की किताब 'द एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर, मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह' ने राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी है। बारू ने अपनी किताब में मनमोहन सिंह को एक बेहद कमजोर पीएम बताया है। शुक्रवार को स्टैंड पर पहुंची इस किताब में यूपीए-1 सरकार के कार्यकाल के दौरान मनमोहन सिंह के कामकाज का पूरा लेखा-जोखा पेश करने का दावा किया गया है। पेश है किताब के चुनिंदा अंश :
मनमोहन कुर्सी पर थे, सत्ता में नहीं!
यूपीए के दूसरे कार्यकाल में मनमोहन सिंह बतौर प्रधानमंत्री काफी कमजोर हो चुके थे। एक तरह से वह कठपुतली बन चुके थे। सिर्फ प्रमुख सरकारी नीतियों पर फैसला ही नहीं, बल्कि बड़े पदों पर नियुक्तियां भी सोनिया गांधी की मंजूरी के बाद ही की जाती थीं। दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री सोनिया गांधी और अपने सहयोगियों के सामने बेबस थे। वहीं मनमोहन सिंह ने भी सत्ता का केंद्र सोनिया गांधी को ही मान लिया था। पलोक चटर्जी के जरिए सोनिया गांधी मनमोहन सिंह पर अपना दबदबा बनाए रखती थीं। पलोक चटर्जी को सोनिया गांधी के कहने पर ही पीएमओ में नियुक्त किया गया था। चटर्जी के जरिए सोनिया उन फाइलों पर नजर रखती थी, जिन्हें प्रधानमंत्री क्लियर करने वाले होते थे। पलोक चटर्जी की सोनिया के साथ लगभग रोजाना मीटिंग होती थी। मीटिंग में उन्हें सोनिया को पूरे दिन की ब्रीफिंग देनी होती थी और जरूरी फाइलों को पीएम के क्लियर करने से पहले जरूरी निर्देश लेना होता था। मनमोहन सिंह कुर्सी पर जरूर थे, लेकिन सत्ता में नहीं थे।
यूपीए के दूसरे कार्यकाल में मनमोहन सिंह बतौर प्रधानमंत्री काफी कमजोर हो चुके थे। एक तरह से वह कठपुतली बन चुके थे। सिर्फ प्रमुख सरकारी नीतियों पर फैसला ही नहीं, बल्कि बड़े पदों पर नियुक्तियां भी सोनिया गांधी की मंजूरी के बाद ही की जाती थीं। दूसरे कार्यकाल में प्रधानमंत्री सोनिया गांधी और अपने सहयोगियों के सामने बेबस थे। वहीं मनमोहन सिंह ने भी सत्ता का केंद्र सोनिया गांधी को ही मान लिया था। पलोक चटर्जी के जरिए सोनिया गांधी मनमोहन सिंह पर अपना दबदबा बनाए रखती थीं। पलोक चटर्जी को सोनिया गांधी के कहने पर ही पीएमओ में नियुक्त किया गया था। चटर्जी के जरिए सोनिया उन फाइलों पर नजर रखती थी, जिन्हें प्रधानमंत्री क्लियर करने वाले होते थे। पलोक चटर्जी की सोनिया के साथ लगभग रोजाना मीटिंग होती थी। मीटिंग में उन्हें सोनिया को पूरे दिन की ब्रीफिंग देनी होती थी और जरूरी फाइलों को पीएम के क्लियर करने से पहले जरूरी निर्देश लेना होता था। मनमोहन सिंह कुर्सी पर जरूर थे, लेकिन सत्ता में नहीं थे।
कहीं और थीं शक्तियां
प्रधानमंत्री को कैबिनेट के मंत्रियों से अपने हिसाब से काम करवाने के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ती थी। उन्होंने न तो मंत्रियों का पोर्टफोलियों तय किया था, न ही कैबिनेट की बैठकों में ज्यादा कुछ दखलंदाजी की और इसी के चलते राजनीतिक मामलों की कैबिनेट कमिटी की धार धीरे-धीरे खत्म हो गई। हकीकत तो यह कि सत्ता की सारी शक्तियां कांग्रेस के कोर ग्रुप - अर्जुन सिंह, ए. के. एंटनी, प्रणब मुखर्जी और अहमद पटेल के हाथों में थीं।
सहयोगी दलों के नेताओं में कुछ ऐसे थे, जो मनमोहन सिंह के साथी थी, लेकिन पुराने कांग्रेसियों से उन्हें बहुत ज्यादा आलोचना झेलनी पड़ती थी। शरद पवार (जिनसे सोनिया के समीकरण बहुत अच्छे नहीं थे) मनमोहन के अच्छे दोस्त थे। कुछ ऐसा ही हाल लालू प्रसाद यादव और वायलर रवि के साथ था। वहीं ए. के. एंटनी और अर्जुन सिंह कैबिनेट में उनके धुर आलोचक थे। एंटनी सार्वजनिक जगहों पर भले ही चुप रहते थे, लेकिन प्राइवेट में वह प्रधानमंत्री की विदेश और आर्थिक नीतियों की जोरदार आलोचना करते थे। उस वक्त के विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी ने वॉशिंगटन के एक ट्रिप से लौटने के तीन दिन बाद तक प्रधानमंत्री को अपनी यात्रा के बारे में कुछ नहीं बताया। अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील के मसले पर जब लेफ्ट पार्टियां कांग्रेस के खिलाफ हो गईं और लगने लगा कि शायद ए. के. एंटनी या सुशील कुमार शिंदे को मनमोहन सिंह की जगह नियुक्त कर दिया जाए तो एनसीपी (नैशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी) के प्रफुल्ल पटेल ने बारू को यकीन दिलाया था कि वह 'डॉक्टर साहब' के अलावा किसी और को समर्थन नहीं देंगे।
प्रधानमंत्री को कैबिनेट के मंत्रियों से अपने हिसाब से काम करवाने के लिए बहुत मशक्कत करनी पड़ती थी। उन्होंने न तो मंत्रियों का पोर्टफोलियों तय किया था, न ही कैबिनेट की बैठकों में ज्यादा कुछ दखलंदाजी की और इसी के चलते राजनीतिक मामलों की कैबिनेट कमिटी की धार धीरे-धीरे खत्म हो गई। हकीकत तो यह कि सत्ता की सारी शक्तियां कांग्रेस के कोर ग्रुप - अर्जुन सिंह, ए. के. एंटनी, प्रणब मुखर्जी और अहमद पटेल के हाथों में थीं।
सहयोगी दलों के नेताओं में कुछ ऐसे थे, जो मनमोहन सिंह के साथी थी, लेकिन पुराने कांग्रेसियों से उन्हें बहुत ज्यादा आलोचना झेलनी पड़ती थी। शरद पवार (जिनसे सोनिया के समीकरण बहुत अच्छे नहीं थे) मनमोहन के अच्छे दोस्त थे। कुछ ऐसा ही हाल लालू प्रसाद यादव और वायलर रवि के साथ था। वहीं ए. के. एंटनी और अर्जुन सिंह कैबिनेट में उनके धुर आलोचक थे। एंटनी सार्वजनिक जगहों पर भले ही चुप रहते थे, लेकिन प्राइवेट में वह प्रधानमंत्री की विदेश और आर्थिक नीतियों की जोरदार आलोचना करते थे। उस वक्त के विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी ने वॉशिंगटन के एक ट्रिप से लौटने के तीन दिन बाद तक प्रधानमंत्री को अपनी यात्रा के बारे में कुछ नहीं बताया। अमेरिका के साथ न्यूक्लियर डील के मसले पर जब लेफ्ट पार्टियां कांग्रेस के खिलाफ हो गईं और लगने लगा कि शायद ए. के. एंटनी या सुशील कुमार शिंदे को मनमोहन सिंह की जगह नियुक्त कर दिया जाए तो एनसीपी (नैशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी) के प्रफुल्ल पटेल ने बारू को यकीन दिलाया था कि वह 'डॉक्टर साहब' के अलावा किसी और को समर्थन नहीं देंगे।
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज सोमवार (14-04-2014) के "रस्में निभाने के लिए हैं" (चर्चा मंच-1582) पर भी है!
बैशाखी और अम्बेदकर जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
प्रधानमंत्री मजबूर हैं इसका अंदेशा तो सारी जनता को था ही। पर 10 जनपथ ने तो उन्हे कठपुतली ही बना दिया।
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