गालियाँ ही गालियाँ
गालियों की हो रही है
आजकल खूब बौछार,
देश में आ गया है चुनाव
फिर इक बार,
शिशुपाल भी लगा है
थोड़ा घबराने,
उसका कीर्तिमान तोड़ेंगे
नेता नये-पुराने,
सब नेताओं में लगी है
इक होड़,
गली-गली में हो रही
अपशब्दों की दौड़,
एक बुद्धिजीवी को लगा
यह है सुनहरा अवसर,
रातों-रात
विज्ञापन चिपका दिए
हर सड़क पर,
“गालियाँ ही गालियाँ
बस एक बार मिल तो लें,
प्रोफेसर जी. ‘अपशब्द’ से
सब नेता आज ही मिलें”,
पर प्रोफेसर जी. को
इस बात का न था अहसास,
गालियों का अनमोल खज़ाना था
हर नेता के पास,
फिर प्रोफेसर जी. थे
बंधे मर्यादाओं से अब तक,
लेकिन किस नेता ने फ़िक्र की
मर्यादों की आजतक,
बेचारे नेता भी क्या करें
राजनीति भी एक धंधा है,
पापी पेट के लिए सब करना पड़ता
नोट-बंदी के चलते पहले ही सब मंदा है.
सार्थक रचना। मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
जवाब देंहटाएंiwillrocknow.com
धन्यवाद
हटाएंधन्यवाद
जवाब देंहटाएं