भारत का संविधान हमें समान रूप से स्वतंत्रता प्रदान करता है और यह भारत सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि वो इस बात का खयाल रखे कि समाज के सभी तबके को समान अधिकार मिले। संविधान निर्माताओं ने आरक्षण के जरिये समाज के कमजोर एवं पिछड़े तबके को समान अधिकार देने की कल्पना की थी। संविधान में १० वर्ष पश्चात आरक्षण के समीक्षा की बात कही गयी थी। आज संविधान के लागु होने के तक़रीबन ६५ वर्ष बीत जाने के बाद, आरक्षण ने समाज में समानता की जगह असामनता को बढ़ावा दिया है।
आरक्षण के प्रावधान ने आज भारतीय समाज को तीन ध्रुव में विभाजित कर दिया है। एक ध्रुव वैसे लोगों का है जिन्हें आरक्षण में मिली सुविधा से संतुष्ट हैं (जैसे अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति, इन्हें २२.५% आरक्षण उपलब्ध है); दूसरे ध्रुव में वैसे लोग हैं जिन्हें आरक्षण में मिली सुविधा से संतुष्ट नहीं हैं (२७% आरक्षण प्राप्त अन्य पिछड़ी जाति में सम्मिलित लोग); तीसरा ध्रुव ऐसे लोगों का है जिन्हे आरक्षण की कोई सुविधा प्राप्त नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में आरक्षण के समर्थन में हमारे देश में समाज के विभिन्न वर्गों के लोगों ने जिस प्रकार इस देश की संपत्ति को नुकसान पहुँचाया है, इससे तो यही प्रतीत होता है कि जातिगत आरक्षण जिसकी कल्पना समाज में समानता प्रदान करने के लिए किया गया था, आज वही प्रावधान इस समानता के राह में सबसे बड़ा बाधक बन चूका है। आरक्षण हमें आगे बढ़ने की बजाए पीछे धकेल रहा है।
अब समय आ चूका है कि भारतीय समाज इस बात की समीक्षा करे कि क्या सचमुच आरक्षण का फायदा सही मायने में उन लोगों को प्राप्त हुआ है जिनकी कभी कल्पना की गयी थी? संविधान में शुरुआती तौर पर आरक्षण का प्रावधान सिर्फ अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के लोगों के उत्थान के लिया किया था। सत्य तो यही है कि ६६ वर्षों के आरक्षण के बाद भी, निचली जाति के अधिकांश लोग ऐसे हैं जिन्हें आरक्षण का फायदा कभी नहीं मिला। उन्हें आज भी अपने मौलिक अधिकार के लिए रोजाना भेदभाव का सामना करना पड़ता है। यहाँ यह समझने की आवश्यकता है कि आरक्षण का फायदा आरक्षित श्रेणी के उन लोगों को पहुंचा है जो पहले से ही समृद्ध थे या आरक्षण का लाभ उठाकर समृद्ध हो गए हैं। जरा सोचिए, भारतीय प्रशासनिक सेवाएँ (IAS) की परीक्षा उत्तीर्ण कर अनुसूचित जनजाति या अनुसूचित जाती के हजारों लोग आज राजपत्रित अधिकारी बने हुए हैं। भला ऐसे उच्च पदस्थ अधिकारीयों को आरक्षण की क्या आवश्यकता है? परंतु सच्चाई यही है कि समाज के ऐसे ही प्रतिष्ठित व्यक्ति वर्ष-दर-वर्ष, पीढ़ी-दर-पीढ़ी आरक्षण का लाभ उठा रहे हैं। अन्य पिछड़े वर्ग के लोगों को आरक्षण देने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों ने २७% आरक्षण की घोषणा की थी। पिछड़ापन निर्धारण के लिए सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक स्तर को सूचक बनाया गया। यहाँ भी आरक्षण का फायदा उन्हीं लोगों को मिल रहा है जिनका स्तर पहले से ही अच्छा रहा है।
आज यह आलम है कि आरक्षण का मुद्दा अब एक वोट बैंक में तब्दील कर दिया गया है। राजनितिक पार्टियाँ आरक्षण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे को किसी भी कीमत पर ख़त्म नही होने देना चाहती हैं। हर राजनितिक दल अपने को दलितों, पिछड़े वर्ग, मुस्लिम इत्यादि का मसीहा कहलाने में लगा हुआ है। दलितों का मशीहा कहे जाने वाले रामविलास पासवान, सुश्री मायावती जैसे सरीखे नेताओं ने भी सिवाय अपने राजनितिक लाभ के अलावा दलित समाज के पिछड़ेपन में सुधार लेन का कोई कार्य नहीं किया है। सामाजिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक रूप से संपन्न नेताओं को आरक्षण क्यों मिलना चाहिए?
कोई राजनितिक दल इस संवेदनशील मुद्दे को उठाकर राजनैतिक नुकसान उठाने की जहमत नही उठाना चाहता। अभी हाल ही में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख ने आरक्षण की समीक्षा का व्यक्तिगत राय व्यक्त किया था। समूचे देश में राजनितिक दलों ने ऐसा हाय-तौबा मचाया कि प्रधानमंत्री महोदय को घोषणा करनी पड़ी कि आरक्षण को ख़त्म नहीं किया जायेगा। संघ प्रमुख ने समीक्षा की बात की थी, आरक्षण ख़त्म करने की नहीं। आरक्षण ने सरकारी तंत्र को बर्बाद कर ही दिया है, अब पिछड़े वर्ग के राजनेताओं द्वारा हर संभव प्रयास किया जा रहा है कि निजी क्षेत्र में भी आरक्षण को लागु किया जाये और वो दिन दूर नहीं जब निजी क्षेत्र भी समाज के इस कोढ़ से अछूता नहीं रहेगा। अब तो हालात ऐसे हैं कि जो जाती एक बार आरक्षण की सूचि में सम्मिलित हो गए हैं, सामाजिक और आर्थिक उन्नति के बावजूद उस सूचि से किसी भी सूरतेहाल में बाहर नहीं निकलना चाहते हैं।
अभी कुछ दिनों पूर्व, हरियाणा राज्य के जाटों ने अपने जाती के लोगों को अन्य पिछड़ा वर्ग में सम्मिलित कर आरक्षण देने की मांग की। अपने मांग के समर्थन में उन्होंने धरना, सड़क जाम, तोड़-फोड़, मारपीट, सरकारी एवं निजी संपत्तियों को काफी नुकसान पहुँचाया। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को पानी की आपूर्ति करने वाली नहर के एक हिस्से को क्षति पहुंचाई गई। स्थिति को सामान्य करने के लिए सेना को बुलानी पड़ी। कई शहरों में कर्फ्यू लगाई गई और बवालियों को देखते ही गोली मार देने का आदेश दिया गया। सिर्फ रोहतक शहर के अंदर तक़रीबन हजार करोड़ की संपत्ति को क्षति पहुंचाई गई। जो धरना आरक्षण के मांग को लेकर शुरू हुआ वह बाद में गैर-जाट के संपत्तियों को लूटने और नुकसान पहुँचाने में तब्दील हो गया। इन जाट समर्थकों को गैर-जाट के संपत्तियों को लूटने और नुकसान पहुँचाने का अधिकार कैसे मिल गया? अगर किसी ने आरक्षण की मांग का विरोध किया भी तो इसमें गलत क्या था? क्या आरक्षण समाज को बाँटने का कार्य नहीं कर रहा? क्या आरक्षण समाज के दो समुदाय को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा होने के लिए मजबूर नहीं कर रहा?
जाट मुख्यतः पश्छिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा एवं राजस्थान में बसे हुए हैं और न सिर्फ सामाजिक बल्कि आर्थिक स्तर पर भी समृद्ध हैं। केंद्र सरकार की मध्यस्थता के बाद हरियाणा सरकार ने घोषणा कर दी कि जाटों को भी अन्य पिछड़े जाती का आरक्षण दिया जाएगा। नतीजतन अब दूसरे राज्य के जाट भी आरक्षण की मांग उठाने लगे हैं। भला एक ऐसा सुमदाय जो सामाजिक और आर्थिक रूप से संपन्न हो, उसे आरक्षण की सुविधा क्यों चाहिए? राजस्थान के गुर्जर जाति के लोग अन्य पिछड़ा जाति से निकलकर अनुसूचित जाति के सूचि में शामिल होना चाहते हैं। गुर्जरों ने पूर्व में दो-तीन बार अपने मांग के समर्थन में सड़क एवं रेल मार्ग को रोका था, परंतु किसी निजी या सरकारी संपत्ति को नुकसान नहीं पहुँचाया गया था। सर्वोच्च न्यायलय के दखल-अंदाजी के पश्चात, गुर्जरों को अपना विरोध वापस लेना पड़ा था।हरियाणा के जाटों ने रास्ता दिखा दिया है कि यदि अपनी मांगें मनवानी हो तो तोड़-फोड़, सरकारी एवं निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाकर सरकारों को मजबूर किया जा सकता है।
भारत की उन्नति में आरक्षण एक बहुत बड़ा बाधा बन गया है। मैं यह नहीं कहता कि सरकार आरक्षण को बिलकुल ख़त्म कर दे। लेकिन आरक्षण की व्यवस्था अगर वैध व्यक्ति को वांछित लाभ से वंचित रखता हो तो उस व्यवस्था पर पुनर्विचार अवश्य होना चाहिए। समय की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए आरक्षण नीति में भी बदलाव की आवश्यकता है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या पिछड़ा वर्ग, हर आरक्षण आर्थिक पैमाने में मिले ना कि सिर्फ सामाजिक पैमाने पर आधारित हो। अगड़ी जाति कहलाने वालों में भी ऐसे लाखों-करोड़ों लोग हैं जो आर्थिक रूप से इतने पिछड़े हैं कि पढाई की बात बहुत दूर उन्हें दो समय का खाना भी ढंग से नसीब नहीं होता। क्या लाभ नहीं मिलना चाहिए?
देश के सर्वोच्च तकनिकी शिक्षण संस्थानों जैसे IIT, NIT, AIIMS, इत्यादि में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछड़े वर्ग के छात्रों को आरक्षण के बुते दाखिला मिल जाता है। ऐसे छात्रों की नींव कमजोर होने की वजह से अधिकतर छात्र उस माहौल में अपने को अक्षम पाते हैं और पढाई पूरा करने में असफल रहते हैं। आवश्यकता है आरक्षण देने से पहले बुनियादी शिक्षा को मजबूत करने की और आरक्षित श्रेणी के छात्रों को बुनियादी शिक्षा मुफ्त मुहैया करवाने की ताकि आरक्षित श्रेणी से आए हुए छात्र सामान्य वर्ग के मेधावी छात्रों के समकक्ष या उनके आसपास पहुँच सकें। किसी प्रकार ऐसे कमजोर छात्र इंजीनियर या डॉक्टर बन भी जाते हैं, तो समाज को उनका योगदान नहीं मिल पाता है। आरक्षण की सुविधा होने के बावजूद अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या पिछड़े वर्ग से कितने ऐसे इंजीनियर, डॉक्टर या वैज्ञानिक निकले हैं जिनकी ख्याति राष्ट्रीय स्तर पर या विश्व स्तर पर रही है? विचारणीय है।
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