वो कितने परिंदों को नाहक उडा़या है
तब जाकर दरख़्त पे एक घर बनाया है
कहता है बड़ा सम्मान है उसका जमानें में
मगर वो जानता है कि डर बनाया है
जी कर सब्र मिले मर के क़फ़न मिल जाए
यही सोच के मैंने अपना शहर बनाया है
मेरे ख़्वाबों को उड़ान देने के लिए देखो
मेरे बेटे ने कागजों का पर बनाया है
कभी हाल ऐसा तो हरगिज नहीं होता
मुझे ऐसा किसी ने जी भर बनाया है
नहीं मानता रुतबा किसी जिंदा शख़्स का
रुतबा तो शहीदों ने मर कर बनाया है
वह शख़्स मेरे फ़कीरी से भी जलता है
जो मुझको इस क़दर अक्सर बनाया है
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