Laxmirangam: चाँदनी का साथ: चाँदनी का साथ चाँद ने पूछा मुझे तुम अब रात दिखते क्यों नहीं? मैंने कहा अब रात भर तो साथ है मेरे चाँदनी. क्या पता तुमको, मैं कितना ...
मित्रों! आप सबके लिए “आपका ब्लॉग” तैयार है। यहाँ आप अपनी किसी भी विधा की कृति (जैसे- अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कर सकते हैं। बस आपको मुझे मेरे ई-मेल roopchandrashastri@gmail.com पर एक मेल करना होगा। मैं आपको “आपका ब्लॉग” पर लेखक के रूप में आमन्त्रित कर दूँगा। आप मेल स्वीकार कीजिए और अपनी अकविता, संस्मरण, मुक्तक, छन्दबद्धरचना, गीत, ग़ज़ल, शालीनचित्र, यात्रासंस्मरण आदि प्रकाशित कीजिए। |
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गुरुवार, 27 सितंबर 2018
Laxmirangam: चाँदनी का साथ
Andhra born. mother toungue Telugu. writing language Hindi. Other languages known - Gujarati, Punjabi, Bengali, English.Published 8 books in Hindi and one in English.
Can manage with Kannada, Tamil, assamese, Marathi .
Published Eight books in Hindi containing Poetry, Short stories, Currect topics, Essays, analysis etc. All are available on www.Amazon.in/books with names Rangraj Iyengar & रंगराज अयंगर
बुधवार, 26 सितंबर 2018
केवल पल ही सत्य है
हर पल
कहता है कुछ
फुसफुसा कर
मेरे कानों में
मैं जा रहा हूँ
जी लो मुझे
चला गया तो
फिर लौट न पाऊंगा
बन जाऊंगा इतिहास
करोगे मुझे याद
मेरी याद में
कर दोगे फिर एक पल बर्बाद
इसलिए हर पल को जियो
उठो सीखो जीना
अतीत के लिए क्या रोना
भविष्य से क्या डरना
यह जो पल वर्तमान है
है वही परम सत्य
बाकी सब असत्य
यही कहता है हर पल
फुसफुसा कर मेरे कानों में ।
कहता है कुछ
फुसफुसा कर
मेरे कानों में
मैं जा रहा हूँ
जी लो मुझे
चला गया तो
फिर लौट न पाऊंगा
बन जाऊंगा इतिहास
करोगे मुझे याद
मेरी याद में
कर दोगे फिर एक पल बर्बाद
इसलिए हर पल को जियो
उठो सीखो जीना
अतीत के लिए क्या रोना
भविष्य से क्या डरना
यह जो पल वर्तमान है
है वही परम सत्य
बाकी सब असत्य
यही कहता है हर पल
फुसफुसा कर मेरे कानों में ।
अभिलाषा चौहान
मेरा नाम अभिलाषा चौहान है। मैंने हिन्दी साहित्य से
एम. फिल किया है। जिंदगी में कभी न हार मानने की प्रवृति रही है। संघर्षों ने जीवन में रस घोल दिया है। अतःजिन्दगी ने बहुत तजुर्बे दिए हैं । हर तजुर्बा बेमिसाल निकला। अध्ययन - अध्यापन के साथ साहित्य से सरोकार बढता गया।
जब साहित्य सरोवर में डुबकियां लगाई तो ज्ञान की गंगा प्रवाहित हुई और समझ आया कि जिन्दगी सांसारिकता के व्यामोह में फंसने के लिए नहीं बल्कि जीने के लिए मिली है। हर पल को जीना और भरपूर जीना ही जिन्दगी है मौत का क्या वह तो बिन बुलाए चली आएगी। कल में नहीं बस पल में जिन्दगी है।
मंगलवार, 25 सितंबर 2018
अस्तित्व
क्या यही संसार है?
क्या यही जीवन है?
झुठलाना चाहती हूं
इस सत्य को
पाना चाहती हूं
उस छल को
जो भटका देता है
छोटी सी नौका को
इस विस्तृत जलराशि में
डूब जाती है नौका
खो देती है अपना
अस्तित्व......!
भुला देता है संसार
उस छोटी सी नौका को
जिसने न जाने कितनों
को किनारा दिखाया !
सब कुछ खोकर भी
उस नौका ने क्या पाया?
अभिलाषा चौहान
मेरा नाम अभिलाषा चौहान है। मैंने हिन्दी साहित्य से
एम. फिल किया है। जिंदगी में कभी न हार मानने की प्रवृति रही है। संघर्षों ने जीवन में रस घोल दिया है। अतःजिन्दगी ने बहुत तजुर्बे दिए हैं । हर तजुर्बा बेमिसाल निकला। अध्ययन - अध्यापन के साथ साहित्य से सरोकार बढता गया।
जब साहित्य सरोवर में डुबकियां लगाई तो ज्ञान की गंगा प्रवाहित हुई और समझ आया कि जिन्दगी सांसारिकता के व्यामोह में फंसने के लिए नहीं बल्कि जीने के लिए मिली है। हर पल को जीना और भरपूर जीना ही जिन्दगी है मौत का क्या वह तो बिन बुलाए चली आएगी। कल में नहीं बस पल में जिन्दगी है।
शनिवार, 22 सितंबर 2018
एक ग़ज़ल : कौन बेदाग़ है---
एक ग़ज़ल
कौन बेदाग़ है दाग़-ए- दामन नहीं ?
जिन्दगी में जिसे कोई उलझन नहीं ?
हर जगह पे हूँ मैं उसकी ज़ेर-ए-नज़र
मैं छुपूँ तो कहाँ ? कोई चिलमन नहीं
वो गले क्या मिले लूट कर चल दिए
लोग अपने ही थे कोई दुश्मन नहीं
घर जलाते हो तुम ग़ैर का शौक़ से
क्यों जलाते हो अपना नशेमन नहीं ?
बात आकर रुकी बस इसी बात पर
कौन रहजन है या कौन रहजन नहीं
सारी दुनिया ग़लत आ रही है नज़र
साफ़ तेरा ही मन का है दरपन नहीं
इस चमन को अब ’आनन’ ये क्या हो गया
अब वो ख़ुशबू नहीं ,रंग-ए-गुलशन नहीं
-आनन्द.पाठक--
कौन बेदाग़ है दाग़-ए- दामन नहीं ?
जिन्दगी में जिसे कोई उलझन नहीं ?
हर जगह पे हूँ मैं उसकी ज़ेर-ए-नज़र
मैं छुपूँ तो कहाँ ? कोई चिलमन नहीं
वो गले क्या मिले लूट कर चल दिए
लोग अपने ही थे कोई दुश्मन नहीं
घर जलाते हो तुम ग़ैर का शौक़ से
क्यों जलाते हो अपना नशेमन नहीं ?
बात आकर रुकी बस इसी बात पर
कौन रहजन है या कौन रहजन नहीं
सारी दुनिया ग़लत आ रही है नज़र
साफ़ तेरा ही मन का है दरपन नहीं
इस चमन को अब ’आनन’ ये क्या हो गया
अब वो ख़ुशबू नहीं ,रंग-ए-गुलशन नहीं
-आनन्द.पाठक--
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
शनिवार, 15 सितंबर 2018
चन्द माहिया : क़िस्त 54
चन्द माहिया :क़िस्त 54
:1:
ये कैसी माया है
तन तो है जग में
मन तुझ में समाया है
:2:
जब तेरे दर आया
हर चेहरा मुझ को
मासूम नज़र आया
:3:
ये कैसा रिश्ता है
देखा कब उसको
दिल रमता रहता है
:4:
बेचैन बहुत है दिल
कब तक मैं तड़पूं
बस अब तो आकर मिल
:5:
यादें कुछ सावन की
तुम न आए जो
बस एक व्यथा मन की
-आनन्द.पाठक-
:1:
ये कैसी माया है
तन तो है जग में
मन तुझ में समाया है
:2:
जब तेरे दर आया
हर चेहरा मुझ को
मासूम नज़र आया
:3:
ये कैसा रिश्ता है
देखा कब उसको
दिल रमता रहता है
:4:
बेचैन बहुत है दिल
कब तक मैं तड़पूं
बस अब तो आकर मिल
:5:
यादें कुछ सावन की
तुम न आए जो
बस एक व्यथा मन की
-आनन्द.पाठक-
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
चिड़िया: क्षितिज
चिड़िया: क्षितिज: जहाँ मिल रहे गगन धरा मैं वहीं तुमसे मिलूँगी, अब यही तुम जान लेना राह एकाकी चलूँगी । ना कहूँगी फ़िर कभी कि तुम बढ़ाओ हाथ अपना, ...
लिखने से अधिक शौक पढ़ने का रहा। ब्लॉग जगत से परिचय होने के बाद अपनी स्वरचित रचनाओं को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से ब्लॉग बनाया।
'अब ना रुकूँगी', 'ओस की बूँदें' (साझा), 'तब गुलमोहर खिलता है' ये तीन कवितासंग्रह प्रकाशित।
"हिन्दी" (अतुल बालाघाटी)
दया सभ्यता प्रेम समाहित जिसके बावन बरनों में
शरणागत होती भाषाएं जिसके पावन चरनों में
जिसने दो सौ साल सही है अंग्रेजों की दमनाई
धीरज फिर भी धारे रक्खा त्याग नहीं दी गुरताई
तुमको अब तक भान नहीं है हिन्दी की करूणाई का
जिसने सबको गले लगाया ममतारूपी माई का
लेकिन बातें चल निकली है नाहक हिन्दी भाषा है
मूरख और अचेतन जन की बोझिल सी परिभाषा है
किस भाषा में सहनशीलता है इतनी यह बतलाओ
सिद्ध करो उस भाषा को तुम या हिन्दी को अपनाओ
शनिवार, 8 सितंबर 2018
एक ग़ज़ल : झूठ का जब धुआँ-----
एक ग़ज़ल :
झूठ का जब धुआँ ये घना हो गया
सच यहाँ बोलना अब मना हो गया
आईना को ही फ़र्ज़ी बताने लगे
आइना से कभी सामना हो गया
रहबरी भी तिजारत हुई आजकल
जिसका मक़सद ही बस लूटना हो गया
जिसको देखा नहीं जिसको जाना नहीं
क्या कहें ,दिल उसी पे फ़ना हो गया
रफ़्ता रफ़्ता वो जब याद आने लगे
बेख़ुदी में ख़ुदी भूलना हो गया
रंग चेहरे का ’आनन’ उड़ा किसलिए ?
ख़ुद का ख़ुद से कहीं सामना हो गया ?
-आनन्द.पाठक-
झूठ का जब धुआँ ये घना हो गया
सच यहाँ बोलना अब मना हो गया
आईना को ही फ़र्ज़ी बताने लगे
आइना से कभी सामना हो गया
रहबरी भी तिजारत हुई आजकल
जिसका मक़सद ही बस लूटना हो गया
जिसको देखा नहीं जिसको जाना नहीं
क्या कहें ,दिल उसी पे फ़ना हो गया
रफ़्ता रफ़्ता वो जब याद आने लगे
बेख़ुदी में ख़ुदी भूलना हो गया
रंग चेहरे का ’आनन’ उड़ा किसलिए ?
ख़ुद का ख़ुद से कहीं सामना हो गया ?
-आनन्द.पाठक-
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
बुधवार, 5 सितंबर 2018
अमन चाँदपुरी के दोहे
दोहे ~
दोहा-दोहा ग्रंथ-सा, भाव-बिंब हों खास।
पूर्ण करो माँ शारदे, निज बालक की आस।।
संगत सच्चे साधु की, 'अमन' बड़ी अनमोल।
बिन पोथी, बिन ग्रन्थ के, ज्ञान चक्षु दे खोल।।
मुँह देखें आशीष दें, मुँह फेरे दें शाप।
दुहरा-सा यह आचरण, ख़ूब जी रहे आप।।
पापिन, कुलटा का लगा, उस पर है अभियोग।
जिसे मलिन करते रहे, बस्ती भर के लोग।।
पोखर, जामुन, रास्ता, आम-नीम की छाँव।
अक्सर मुझसे पूछते, छोड़ दिया क्यों गाँव।।
नफ़रत का बिच्छू 'अमन', मार रहा है डंक।
प्रेम बस्तियाँ जल रहीं, फैल रहा आतंक।।
ज़ख़्म दरिंदों ने दिए, कैसे जाती भूल।
फंदा पहना हार-सा, और गई फिर झूल।।
उतनी कविताएँ लिखीं, झेले जितने घाव।
छुपे शब्द की कोख में, जीवन भर के भाव।।
हिन्दू को होली रुचे, मुसलमान को ईद।
हम तो मज़हब के बिना, सबके रहे मुरीद।।
सच आबे-जमजम नहीं, यह है कड़वा नीम।
इसे पिलाना प्रेम से, कहते सभी हक़ीम।।
सत्ता लड़वाती स्वयं, झूठा करे निदान।
'अमन' ठाठ से चल रही, मज़हब की दूकान।।
सबका सबसे नेह हो, सब हों सब के मीत।
नई सदी के पृष्ठ पर, लिखो प्रेम के गीत।।
दृश्य विहंगम हो गया, रक्त सने अख़बार।
आँखें भी करने लगीं, पढ़ने से इंकार।।
एक पुत्र ने माँ चुनी, एक पुत्र ने बाप।
माँ बापू किसको चुने, मुझे बताएँ आप?
ब्याह हुआ, बिटिया गई, अपने घर ख़ुशहाल।
अश्रु बहे फिर तात के, जिनको रखा सँभाल।।
सच्चाई छुपती नहीं, मत कर लाग लपेट।
लाख जतन छुपता नहीं, दाई से यह पेट।।
झाड़-पोंछ तस्वीर दी, लगने लगे हसीन।
दो अक्टूबर को हुए, बापू पुनः नवीन।।
आँखें ज़ख़्मी हो चलीं, मंज़र लहूलुहान।
मज़हब की तकरार से, मुल्क हुआ शमशान।।
'अमन' तुम्हारी चिठ्ठियाँ, मैं रख सकूँ सँभाल।
इसीलिए संदूक से, गहने दिए निकाल।।
मंजिल बिल्कुल पास थी, रस्ते पर थे पाँव।
ऐन वक़्त नाहक चले, उल्टे-सीधे दाँव।।
कविता का उद्देश्य हो, जन-जन का कल्याण।
तभी सफल है लेखनी, तभी शब्द में प्राण।।
जड़ से भी जुड़कर रहो, बढ़ो प्रगति की ओर।
चरखी बँधी पतंग ज्यों, छुए गगन के छोर।।
बरगद बोला चीख़कर, तुझे न दूगाँ छाँह।
बेरहमी से काट दी, तूने मेरी बाँह।।
राजा के वश में हुई, अधरों की मुस्कान।
हँसने पर होगी सज़ा, रोने पर सम्मान।।
प्रेम पुष्प पुष्पित हुआ, जुड़े हृदय के तार।
एक नाव इस पार है, एक नाव उस पार।।
जब-जब होती संग तू, और हाथ में हाथ।
सारा जग झूठा लगे, सच्चा तेरा साथ।।
नाच रही हैं चूडियाँ, कंगन करते रास।
लाडो की डोली उठी, चली पिया के पास।।
अलफ़ॉन्सो, तोतापरी, जरदालू, बादाम।
तपती दुपहर जून में, ख़ूब बटोरे आम।।
कभी बुझाए दीप तो, कभी लगाए आग।
अजब-अनोखा है 'अमन', हवा-अग्नि का राग।।
अब तो जाता ही नहीं, स्वप्न किसी भी ठाँव।
देखा है जिस रोज़ से, प्रिये तुम्हारा गाँव।।
खाली बर्तन देखकर, बच्चा हुआ उदास।
फिर भी माँ से कह रहा, मुझको भूख न प्यास।।
जीने की ख़ातिर किये, जाने कैसे काम।
विधवा से जुड़ता गया, रोज़ नया इक नाम।।
जाति-धर्म को लड़ रहे, शाप बना वरदान।
मज़हब की तलवार ने, काट दिये इंसान।।
अस्पताल के फर्श पर, घायल पड़ा मरीज़।
मगर चिकित्सक के लिए, उसकी चाय अज़ीज़।।
इस समाज में आज भी, हैं ऐसे कुछ राम।
जो सीता जी को करें, अग्निदेव के नाम।।
भाषा, मज़हब, जात का, क्षेत्रवाद का दंश।
टीस अभी तक दे रहा, नाहक मनु का वंश।।
राजनीति के हैं 'अमन', बहुत निराले खेल।
गंजों को ही मिल रहे, शीशा, कंघी, तेल।।
नन्हे बच्चे देश के, बन बैठे मज़दूर।
पापिन रोटी ने किया, उफ! कितना मज़बूर।।
जमे नहीं क्या शह्र में, 'अमन' तुम्हारे पाँव।
मेड़ खेत की पूछती, जब-जब जाऊँ गाँव।।
आँखों ने जब-जब किया, आँखों से संवाद।
व्यर्थ लगीं सब पोथियाँ, रहा न कुछ भी याद।।
अधर गीत गाते रहे, प्रेम नगर के पास।
तोड़ रही हैं पंक्तियाँ, ऋषियों का सन्यास।।
इक दिन था ख़ुद को पढ़ा, भ्रम की गाँठें खोल।
तब से मिट्टी लग रहे, ये दोहे अनमोल।।
~ अमन चाँदपुरी
कवि, लेखक, सम्पादक और फ़ोटोग्राफर। 'दोहा सम्राट' एवं 'कुंडलियां शिरोमणि' की मानद उपाधियों सहित दर्जनों पुरस्कार एवं सम्मान से अलंकृत। 'दोहा दर्पण' पुस्तक का सम्पादन।
सोमवार, 3 सितंबर 2018
चन्द माहिया : क़िस्त 53
चन्द माहिया :क़िस्त 53
:1:
सब क़िस्मत की बातें
कुछ को ग़म ही ग़म
कुछ को बस सौग़ातें
:2:
कब किसने है माना
आज नहीं तो कल
सब छोड़ के है जाना
:3:
कब तक भागूँ मन से
देख रहा कोई
छुप छुप के चिलमन से
:4:
कब दुख ही दुख रहता
वक़्त किसी का भी
यकसा तो नहीं रखता
:5:
जब जाना है ,बन्दे !
काट ज़रा अब तो
सब माया के फन्दे
-आनन्द.पाठक-
:1:
सब क़िस्मत की बातें
कुछ को ग़म ही ग़म
कुछ को बस सौग़ातें
:2:
कब किसने है माना
आज नहीं तो कल
सब छोड़ के है जाना
:3:
कब तक भागूँ मन से
देख रहा कोई
छुप छुप के चिलमन से
:4:
कब दुख ही दुख रहता
वक़्त किसी का भी
यकसा तो नहीं रखता
:5:
जब जाना है ,बन्दे !
काट ज़रा अब तो
सब माया के फन्दे
-आनन्द.पाठक-
न आलिम न मुल्ला न उस्ताद ’आनन’ //
अदब से मुहब्बत अदब आशना हूँ//
सम्पर्क 8800927181
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