दोहे ~
दोहा-दोहा ग्रंथ-सा, भाव-बिंब हों खास।
पूर्ण करो माँ शारदे, निज बालक की आस।।
संगत सच्चे साधु की, 'अमन' बड़ी अनमोल।
बिन पोथी, बिन ग्रन्थ के, ज्ञान चक्षु दे खोल।।
मुँह देखें आशीष दें, मुँह फेरे दें शाप।
दुहरा-सा यह आचरण, ख़ूब जी रहे आप।।
पापिन, कुलटा का लगा, उस पर है अभियोग।
जिसे मलिन करते रहे, बस्ती भर के लोग।।
पोखर, जामुन, रास्ता, आम-नीम की छाँव।
अक्सर मुझसे पूछते, छोड़ दिया क्यों गाँव।।
नफ़रत का बिच्छू 'अमन', मार रहा है डंक।
प्रेम बस्तियाँ जल रहीं, फैल रहा आतंक।।
ज़ख़्म दरिंदों ने दिए, कैसे जाती भूल।
फंदा पहना हार-सा, और गई फिर झूल।।
उतनी कविताएँ लिखीं, झेले जितने घाव।
छुपे शब्द की कोख में, जीवन भर के भाव।।
हिन्दू को होली रुचे, मुसलमान को ईद।
हम तो मज़हब के बिना, सबके रहे मुरीद।।
सच आबे-जमजम नहीं, यह है कड़वा नीम।
इसे पिलाना प्रेम से, कहते सभी हक़ीम।।
सत्ता लड़वाती स्वयं, झूठा करे निदान।
'अमन' ठाठ से चल रही, मज़हब की दूकान।।
सबका सबसे नेह हो, सब हों सब के मीत।
नई सदी के पृष्ठ पर, लिखो प्रेम के गीत।।
दृश्य विहंगम हो गया, रक्त सने अख़बार।
आँखें भी करने लगीं, पढ़ने से इंकार।।
एक पुत्र ने माँ चुनी, एक पुत्र ने बाप।
माँ बापू किसको चुने, मुझे बताएँ आप?
ब्याह हुआ, बिटिया गई, अपने घर ख़ुशहाल।
अश्रु बहे फिर तात के, जिनको रखा सँभाल।।
सच्चाई छुपती नहीं, मत कर लाग लपेट।
लाख जतन छुपता नहीं, दाई से यह पेट।।
झाड़-पोंछ तस्वीर दी, लगने लगे हसीन।
दो अक्टूबर को हुए, बापू पुनः नवीन।।
आँखें ज़ख़्मी हो चलीं, मंज़र लहूलुहान।
मज़हब की तकरार से, मुल्क हुआ शमशान।।
'अमन' तुम्हारी चिठ्ठियाँ, मैं रख सकूँ सँभाल।
इसीलिए संदूक से, गहने दिए निकाल।।
मंजिल बिल्कुल पास थी, रस्ते पर थे पाँव।
ऐन वक़्त नाहक चले, उल्टे-सीधे दाँव।।
कविता का उद्देश्य हो, जन-जन का कल्याण।
तभी सफल है लेखनी, तभी शब्द में प्राण।।
जड़ से भी जुड़कर रहो, बढ़ो प्रगति की ओर।
चरखी बँधी पतंग ज्यों, छुए गगन के छोर।।
बरगद बोला चीख़कर, तुझे न दूगाँ छाँह।
बेरहमी से काट दी, तूने मेरी बाँह।।
राजा के वश में हुई, अधरों की मुस्कान।
हँसने पर होगी सज़ा, रोने पर सम्मान।।
प्रेम पुष्प पुष्पित हुआ, जुड़े हृदय के तार।
एक नाव इस पार है, एक नाव उस पार।।
जब-जब होती संग तू, और हाथ में हाथ।
सारा जग झूठा लगे, सच्चा तेरा साथ।।
नाच रही हैं चूडियाँ, कंगन करते रास।
लाडो की डोली उठी, चली पिया के पास।।
अलफ़ॉन्सो, तोतापरी, जरदालू, बादाम।
तपती दुपहर जून में, ख़ूब बटोरे आम।।
कभी बुझाए दीप तो, कभी लगाए आग।
अजब-अनोखा है 'अमन', हवा-अग्नि का राग।।
अब तो जाता ही नहीं, स्वप्न किसी भी ठाँव।
देखा है जिस रोज़ से, प्रिये तुम्हारा गाँव।।
खाली बर्तन देखकर, बच्चा हुआ उदास।
फिर भी माँ से कह रहा, मुझको भूख न प्यास।।
जीने की ख़ातिर किये, जाने कैसे काम।
विधवा से जुड़ता गया, रोज़ नया इक नाम।।
जाति-धर्म को लड़ रहे, शाप बना वरदान।
मज़हब की तलवार ने, काट दिये इंसान।।
अस्पताल के फर्श पर, घायल पड़ा मरीज़।
मगर चिकित्सक के लिए, उसकी चाय अज़ीज़।।
इस समाज में आज भी, हैं ऐसे कुछ राम।
जो सीता जी को करें, अग्निदेव के नाम।।
भाषा, मज़हब, जात का, क्षेत्रवाद का दंश।
टीस अभी तक दे रहा, नाहक मनु का वंश।।
राजनीति के हैं 'अमन', बहुत निराले खेल।
गंजों को ही मिल रहे, शीशा, कंघी, तेल।।
नन्हे बच्चे देश के, बन बैठे मज़दूर।
पापिन रोटी ने किया, उफ! कितना मज़बूर।।
जमे नहीं क्या शह्र में, 'अमन' तुम्हारे पाँव।
मेड़ खेत की पूछती, जब-जब जाऊँ गाँव।।
आँखों ने जब-जब किया, आँखों से संवाद।
व्यर्थ लगीं सब पोथियाँ, रहा न कुछ भी याद।।
अधर गीत गाते रहे, प्रेम नगर के पास।
तोड़ रही हैं पंक्तियाँ, ऋषियों का सन्यास।।
इक दिन था ख़ुद को पढ़ा, भ्रम की गाँठें खोल।
तब से मिट्टी लग रहे, ये दोहे अनमोल।।
सुन्दर दोहे
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