एक ग़ज़ल
कौन बेदाग़ है दाग़-ए- दामन नहीं ?
जिन्दगी में जिसे कोई उलझन नहीं ?
हर जगह पे हूँ मैं उसकी ज़ेर-ए-नज़र
मैं छुपूँ तो कहाँ ? कोई चिलमन नहीं
वो गले क्या मिले लूट कर चल दिए
लोग अपने ही थे कोई दुश्मन नहीं
घर जलाते हो तुम ग़ैर का शौक़ से
क्यों जलाते हो अपना नशेमन नहीं ?
बात आकर रुकी बस इसी बात पर
कौन रहजन है या कौन रहजन नहीं
सारी दुनिया ग़लत आ रही है नज़र
साफ़ तेरा ही मन का है दरपन नहीं
इस चमन को अब ’आनन’ ये क्या हो गया
अब वो ख़ुशबू नहीं ,रंग-ए-गुलशन नहीं
-आनन्द.पाठक--
कौन बेदाग़ है दाग़-ए- दामन नहीं ?
जिन्दगी में जिसे कोई उलझन नहीं ?
हर जगह पे हूँ मैं उसकी ज़ेर-ए-नज़र
मैं छुपूँ तो कहाँ ? कोई चिलमन नहीं
वो गले क्या मिले लूट कर चल दिए
लोग अपने ही थे कोई दुश्मन नहीं
घर जलाते हो तुम ग़ैर का शौक़ से
क्यों जलाते हो अपना नशेमन नहीं ?
बात आकर रुकी बस इसी बात पर
कौन रहजन है या कौन रहजन नहीं
सारी दुनिया ग़लत आ रही है नज़र
साफ़ तेरा ही मन का है दरपन नहीं
इस चमन को अब ’आनन’ ये क्या हो गया
अब वो ख़ुशबू नहीं ,रंग-ए-गुलशन नहीं
-आनन्द.पाठक--
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