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शनिवार, 27 अक्टूबर 2018

ग़ज़ल : हमें मालूम है संसद में फिर ---

ग़ज़ल  : हमें मालूम है संसद में फिर ---



हमें मालूम है संसद में कल फिर क्या हुआ होगा
कि हर मुद्दा सियासी ’वोट’ पर  तौला  गया होगा

वो,जिनके थे मकाँ वातानुकूलित संग मरमर  के
हमारी झोपड़ी के  नाम हंगामा   किया  होगा

जहाँ पर बात मर्यादा की या तहजीब की आई
बहस करते हुए वो गालियाँ  भी दे रहा  होगा

बहस होनी जहाँ पर थी किसी गम्भीर मुद्दे पर
वहीं संसद में ’मुर्दाबाद’ का  नारा लगा होगा

चलें होंगे कभी चर्चे जो रोटी पर ,ग़रीबी  पर
दिखा कर आंकड़ों  का खेल ,सीना तन गया होगा

कभी ’मण्डल’ ’कमण्डल पर , कभी ’मन्दिर. कि ’मस्जिद पर
इन्हीं के नाम बरसों से तमाशा हो रहा होगा

खड़ा है कटघरे में अब ,लगा आरोप ’आनन’ पर
कहीं पर भूल से सच बात उसने कह दिया होगा

-आनन्द.पाठक-

शुक्रवार, 26 अक्टूबर 2018

आंसुओं को पनाह नहीं मिलती!

तोहमतें हजार मिलती हैं,
नफरतें हर बार मिलती हैं,
टूट कर बिखरने लगता है दिल,
आंखें जार-जार रोती हैं,
देख कर भी अनदेखा कर देते हैं लोग,
आंसुओं को पनाह नहीं मिलती।।

मुफलिसी के आलम में गुजरती जिंदगी,
सपनों को बिखरते देखा करे जिंदगी ,
फिरती है दर-बदर ठोंकरे खाती,
किस्मत को बार - बार आजमती जिंदगी,
मौतें हजार मिलती हैं,
आंखें जार-जार रोती हैं,
आंसुओं को पनाह नहीं मिलती।।

अपनों को तड़पते देखती जिंदगी,
चंद सिक्कों के लिए भटकती जिंदगी,
मारी- मारी फिरती है दर-बदर,
इंसान की इंसान ही करता नहीं कदर,
इंसानियत जार - जार रोती है,
आंसुओं को पनाह नहीं मिलती।।

तड़पती मासूम भेड़ियों के बीच में,
दुबकती और सिमटती है,
मांगती भीख रहनुमाई की,
हैवानियत कहां रोके रुकती है,
सिसकती है और फूट-फूट कर रोती है,
आंसुओं को पनाह नहीं मिलती।

टूटता घर और फूटता नसीब उनका,
बन गए हैं बोझ जहां रिश्ते,
देखते उजड़ते आशियाने को,
बूढ़े मां-बाप अपने श्रवणों को,
उनकी ममता बार-बार रोती है,
आंसुओं को पनाह नहीं मिलती। ।

अभिलाषा चौहान

शनिवार, 20 अक्टूबर 2018

चन्द माहिया : क़िस्त 55

चन्द माहिया : क़िस्त 55

:1:
शिकवा न शिकायत है
जुल्म-ओ-सितम तेरा
क्या ये भी रवायत है

:2:
कैसा ये सितम तेरा
सीख रही हो क्या ?
निकला ही न दम मेरा

  :3:
छोड़ो भी गिला शिकवा
अहल-ए-दुनिया से
जो होना था सो हुआ

:4:
इतना ही बस माना
राह-ए-मुहब्बत से
घर तक तेरे जाना

:5:
ये दर्द हमारा है
तनहाई में बस
इसका ही सहारा है

-आनन्द पाठक--

बुधवार, 17 अक्टूबर 2018

महिमा अपरंपार है इनकी

मेरी इस रचना का उद्देश्य किसी वर्ग विशेष पर
आक्षेप करना नहीं है बल्कि मैं उस सत्य को
शब्द रूप में प्रकट कर रहीं हूँ जो प्रतिदिन हमारे सामने आता है।

बड़ा अच्छा धंधा है, शिक्षा का न फंदा है।
न ही कोई परीक्षा है, लेनी बस दीक्षा है।
बन जाओ किसी बाबा के चेले।
नहीं रहोगे तुम कभी अकेले।
इस धंधे में मिली हुई सबकोआजादी
कोई कितना बड़ा चाहे हो अपराधी
मनचाहा पैसा है, मनचाहा वातावरण है।
जिसने ले ली ढोंगी बाबाओं की शरण है।
उसने कर लिया अपनी चिंताओं का हरण है ।
भविष्यवाणियाँ करके जनता को खूब डराते।
सेवा-मेवा पाते, जनता को उल्लू बनाते ।
आलीशान होती है इनकी जीवन शैली ।
ऐशो आरामों से भरी रहती है हवेली।
हाथ जोड़कर बैठी रहती है जनता भोली।
खुलने लगी है अब इनकी पोलम पोली।
संत-असंत का भेद कैसे समझे जनता?
जिसको कहीं जगह नहीं वही संत बन जाता।
चौपहिया वाहनों के होते हैं ये स्वामी
ऊपर से बनते संत अंदर से होते कामी।
सुरक्षा में इनके रहती नहीं कोई खामी।
डिजिटल हो गए आज के साधु - संत
इनकी महिमा का कोई नहीं है अंत।
चोला राम नाम का पहनते
राम नाम का मरम न समझते।
सुविधा त्याग राम भए संन्यासी
ये सुविधाओं में हैं संन्यासी
महिमा इनकी अपरंपार
शब्दों में जो न हो साकार।।।

अभिलाषा चौहान

रविवार, 14 अक्टूबर 2018

दर्द का समंदर

जब टूटता है दिल

धोखे फरेब से

अविश्वास और संदेह से

नफरतों के खेल से

तो लहराता है दर्द का समंदर

रह जाते हैं हतप्रभ

अवाक् इंसानों के रूप से

सीधी सरल निष्कपट जिन्दगी

पड़ जाती असमंजस में

बहुरूपियों की दुनिया फिर

रास नहीं आती

उठती हैं अबूझ प्रश्नों की लहरें

आता है ज्वार फिर दिल के समंदर में

भटकता है जीवन

तलाशते किनारा

जीवन की नैया को

नहीं मिलता सहारा

हर और यही मंजर है

दिल में चुभता कोई खंजर है

मरती हुई इंसानियत से

दिल जार जार रोता है

ऐसे भी भला कोई

इंसानियत खोता है

जब उठता दर्द का समंदर

हर मंजर याद आता है

डूबती नैया को कहां

साहिल नजर आता है!!!

(अभिलाषा चौहान)



एक व्यंग्य : सबूत चाहिए ---

एक लघु व्यथा : सबूत चाहिए.....[व्यंग्य]
विजया दशमी पर्व शुरु हो गया । भारत में, गाँव से लेकर शहर तक ,नगर से लेकर महानगर तक पंडाल सजाए जा रहे हैं ,रामलीला खेली जा रही है । हर साल राम लीला खेली जाती है , झुंड के झुंड लोग आते है रामलीला देखने।स्वर्ग से देवतागण भी देखते है रामलीला -जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" की । भगवान श्री राम स्वयं सीता और लक्षमण सहित आज स्वर्ग से ही दिल्ली की रामलीला देख रहे हैं और मुस्करा रहे हैं - मंचन चल रहा है !। कोई राम बन रहा है कोई लक्ष्मण कोई सीता कोई जनक।सभी स्वांग रच रहे हैं ,जीता कोई नहीं है।स्वांग रचना आसान है ,जीना आसान नहीं। कैसे कैसे लोग आ गए हैं इस रामलीला समिति में । कैसे कैसे लोग चले आते है उद्घाटन करने । जिसमें अभी ’रावणत्व’ जिन्दा है वो भी राम लीला में चले आ रहे हैं ’रामनामी’ ओढ़े हुए ।...लोगो में ’रामत्व’ दिखाई नहीं पड़ रहा है ।फिर भी रामलीला हर साल मनाई जाती है ...रावण का हर साल वध होता है और फिर पर्वोपरान्त जिन्दा हो जाता है । रावण नहीं मरता। रावण को मारना है तो ’लोगो के अन्दर के रावणत्व’ को मारना होगा ...रामत्व जगाना होगा...
भगवान मुस्कराए
इसी बीच हनुमान जी अपनी गदा झुकाए आ गए और आते ही भगवान श्री राम के चरणों में मुँह लटकाए बैठ गए। हनुमान जी आज बहुत उदास थे। दुखी थे।
आज हनुमान ने ’जय श्री राम ’ नहीं कहा - भगवान श्री राम ने सोचा।क्या बात है ? अवश्य कोई बात होगी अत: पूछ बैठे --’ हे कपीश तिहूँ लोक उजाकर ! आज आप दुखी क्यों हैं ।को नहीं जानत है जग में कपि संकट मोचन नाम तिहारो । आप तो स्वयं संकटमोचक हैं ।आप पर कौन सी विपत्ति आन पड़ी कि आप दुखी हैं ??आप तो ’अतुलित बलधामा’ है आज से पहले आप को कभी मैने उदास होते नहीं देखा ।क्या बात है हनुमन्त !
भगवान मुस्कराए
-अब तो मैं नाम मात्र का ’अतुलित बलधामा’ रह गया ,प्रभु ! बहुत दुखी हूं । इस से पहले मै इतना दुखी कभी न हुआ ।। कल मैं धरती लोक पर गया था दिल्ली की राम लीला देखने । वहाँ एक आदमी मिला......सबूत मांग रहा था.....
अरे! वही धोबी तो नही था अयोध्या वाला ?- भगवान श्री राम ने बात बीच ही में काटते हुए कहा-" सीता ने तो अपना ’सबूत’ दे दिया था..
नही प्रभु ! वो वाला धोबी नहीं था ,मगर यह आदमी भी उस धोबी से कुछ कम नहीं ..- धोता रहता है सबको रह रह कर ।वो सीता मईया का नही ,मेरे "सर्जिकल स्ट्राईक" का सबूत माँग रहा था
""सर्जिकल स्ट्राईक" और आप ? कौन सा , हनुमान ??-भगवान श्री राम चौंक गए
’ स्वामी ! वही स्ट्राईक ,जो लंका में घुस कर 40-50 राक्षसों को मारा था...रावण के बाग-बगीचे उजाड़े थे..अशोक वाटिका उजाड़ दी थी ...लंका में आग लगा दी..... रावण के सेनापति को पटक दिया था । अब आज एक आदमी ’सबूत’ माँग रहा है...
उधर लंका में सारे राक्षस गण जश्न मना रहे ,,,,..,नाच रहे है..... गा रहे हैं ..ढोल-ताशे बजा रहे है ..लंकावाले कह रहे हैं कि सही आदमी है वह ....ग़लत जगह फँस गया है ...माँग रहे हैं उसे । कह रहे हैं लौटा दो अपना आदमी है....,भेंज दो उसे इधर...
भगवान मुस्कराए
’हे महावीर विक्रम बजरंगी ”- भगवान श्री राम ने कहा -"तुम्हारे पास तो ’भूत-पिशाच निकट नहीं आवें तो यह आदमी तुम्हारे पास कैसे आ गया . ..तुम उसी आदमी की बात तो नहीं कर रहे हो ..जो हर किसी की ’डीग्री ’ का सबूत माँगता है --किसी का सर्टिफ़िकेट माँगता है...जो -"स्वयं सत्यम जगत मिथ्या" समझता है अर्थात स्वयं को सही और जगत को फ़र्जी समझता है --तुम उस आदमी की तो बात नहीं कर रहे हो जिसकी जुबान लम्बी हो गई थी और डाक्टरो ने काट कर ठीक कर दिया है 
हे भक्त शिरोमणि ! कहीं उस आम आदमी की तो बात नहीं कर रहे हो जो सदा गले में ’मफ़लर’ बाँधे रहता है और जब भी ’झूठ-वाचन’ करता है तो ’खँखारता-खाँसता’ रहता है
’सही पकड़े है ’-हनुमान ने कहा
-हे हनुमान ! तुम उसी आदमी की बात तो नहीं कर रहे हो जिसकी सूरत मासूम सी है.....
-बस सूरत ही मासूम है..प्रभु !- हाँ ..हाँ प्रभु !वही ।........कह रहा था लंका में कोई "सर्जिकल स्ट्राईक" हुई ही नही ।वह तो सब ’वाल्मीकि ,तुलसीदास ,राधेश्याम रामानन्द सागर का ’मीडिया क्रियेशन’ था वरना कोई एक वानर इतना बड़ा काम अकेले कर सकता है और वो भी लंका में जा कर ...कोई सबूत नहीं है ...सारे कथा वाचको ने .पंडितों ने.....रामलीला वालों ने साल-ओ-साल यही दुहराया मगर ’सबूत’ किसी ने नही दिया । प्रभु ! अब वह सबूत माँग रहा है
भगवन ! अगर मुझे मालूम होता कि वह व्यक्ति मेरे "सर्जिकल स्ट्राईक" का किसी दिन सबूत माँगेगा तो रावण से ’सर्टिफिकेट’ ले लिया होता -भईया एक सबूत दे दे इस लंका-दहन का । नहीं तो अपनी जलती पूँछ समुन्दर में ही नहीं बुझाता अपितु वही जलती हुई पूँछ लेकर आता और दिखा देता -दे्खो ! यह है ’सबूत’
भगवान मन्द मन्द मुस्कराए और बोले--नहीं हनुमान नहीं । ऐसे तो उसका मुँह ही झुलस जाता
भगवन ! उसे अपना मुँह झुलसने की चिन्ता नहीं .अपितु सबूत की चिन्ता है ,,,अगले साल देश में कई जगह चुनाव होना है न
इस बार भगवान नहीं मुस्कराए ,अपितु गहन चिन्तन में डूब गए...
प्रभुवर ! आप किस चिन्ता में डूब गए ? -हनुमान जी ने पूछा
हे केशरी नन्दन! कहीं वो व्यक्ति कल यह न कह दे कि ’राम-रावण’ युद्ध हुआ ही नहीं था ,,तो मैं कहाँ से सबूत लाऊँगा ???मैनें तो ’विडियोग्राफी भी नहीं करवाई थी ।
अस्तु
-आनन्द.पाठक--

शनिवार, 13 अक्टूबर 2018

एक ग़ज़ल : वातानुकूलित आप ने---


वातानुकूलित आप ने आश्रम बना लिए
सत्ता के इर्द-गिर्द ही धूनी रमा  लिए

’दिल्ली’ में बस गए हैं ’तपोवन’ को छोड़कर
’साधू’ भी आजकल के मुखौटे चढ़ा लिए

सब वेद ज्ञान श्लोक ॠचा मन्त्र  बेच कर
जो धर्म बच गया था दलाली  में खा लिए

आए वो ’कठघरे’ में न चेहरे पे थी शिकन
साहिब हुज़ूर जेल ही में  घर बसा लिए

ये आप का हुनर था कि जादूगरी कोई
ईमान बेच बेच के पैसा  कमा  लिए

गूँगों की बस्तियों में वो अन्धों की भीड़ में
खोटे तमाम जो भी थे सिक्के चला लिए

’आनन’ तुम्हारा मौन कि माना बहुत मुखर
लेकिन जहाँ था बोलना क्यों चुप लगा लिए



-आनन्द.पाठक-

शुक्रवार, 12 अक्टूबर 2018

विषमता जीवन की

ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं के समक्ष
बनी ये झुग्गियां
विषमता का देती परिचय
मारती हैं तमाचा समाज के मुख पर
चलता है यहां गरीबी का नंगा नाच
भूखे पेट नंगे तन
भटकता भारत का भविष्य
मांगता जीवन की चंद खुशियां
जिंदगी जीने की जद्दोजहद
मजदूरी करते मां-बाप
दो वक्त की रोटी की चिंता
में जूझता जीवन
न सुविधा, न शिक्षा
न स्वच्छता, न पोषण
बस शोषण ही शोषण
मारता है तमाचा देश की व्यवस्था पर
जो बंद एसी कमरों में बैठकर
बनाती भारत के विकास की योजनाएं
करके बड़ी - बड़ी बातें
जो धरातल पर कम ही होती साकार
इसलिए झुग्गियों का हो रहा विस्तार
भारत में पनपता एक भारत
जीता विषमताओं का जीवन
सिसकता बचपन
कचरे के ढेर में ढूंढता खुशियां
मारता है तमाचा
उन समाज के ठेकेदारों पर
जो करते समाज-सुधार की बातें
बातों से किसी का कहां भला होता है
बातों से कहां किसी का पेट भरता है??

अभिलाषा चौहान
स्वरचित


चित्र गूगल से साभार 


शनिवार, 6 अक्टूबर 2018

एक ग़ज़ल : जड़ों तक साज़िशें---

एक ग़ज़ल : जड़ों तक साजिशें गहरी---


जड़ों तक साज़िशें गहरी ,सतह पे हादसे थे
जहाँ बारूद की ढेरी , वहीं  पर  घर  बने थे

हवा में मुठ्ठियाँ ताने  जो सीना  ठोकते थे
ज़रूरत जब पड़ी उनकी ,झुका गरदन गए थे

कि उनकी आदतें थी देखना बस आसमाँ ही
ज़मीं पाँवों के नीचे खोखली फिर भी खड़े थे

अँधेरा ले कर आए हैं ,बदल कर रोशनी को
वो अपने आप की परछाईयों  से यूँ   डरे थे

बहुत उम्मीद थी जिनसे ,बहुत आवाज़ भी दी
कि जिनको चाहिए था जागना .सोए पड़े थे

हमारी चाह थी ’आनन’ कि दर्शन आप के हों
मगर जब भी मिले हम आप से ,चेहरे चढ़े  थे

-आनन्द.पाठक--

बुधवार, 3 अक्टूबर 2018

Laxmirangam: तुम फिर आ गए !!!

Laxmirangam: तुम फिर आ गए !!!: तुम फिर आ गए !!! --------------------------- बापू, तुम फिर आ गए !!! पिछली बार कितना समझाया था, पर तुम माने नहीं. कितनी ...

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सोमवार, 1 अक्टूबर 2018

शब्द ही सत्य है

शब्द मय है सारा संसार,
शब्द ही काव्य अर्थ विस्तार ।
शब्द ही जगती का श्रृंगार,
शब्द से जीवन है साकार।
शब्द से अर्थ नहीं है विलग,
शब्द से सुंदर भाव सजग।
शब्द का जैसा करो प्रयोग,
वैसा ही होता है उपयोगी।
शब्द कर देते हैं विस्फोट,
कभी लगती है गहरी चोट ।
नहीं शब्दों में कोई खोट,
शब्द लेकर भावों की ओट।
दिखा देते हैं अपना प्रभाव ,
खेल जाते हैं अपना दांव।
शब्दों से हो जाते हैं युद्ध,
टूटते दिल घर परिवार संबंध।
शब्द ही जोड़े दिल के तार,
बहती सप्त स्वरों की रसधार।
शब्द की शक्ति बड़ी अनंत,
शब्द से सृष्टि है जीवंत।
कभी बन कर लगते गोली,
कभी लगते कोयल की बोली।
कभी बन जाते हैं नासूर,
कभी बन जाते हैं अति क्रूर।
शब्द की महिमा अपरंपार,
शब्द ही जगती का आधार।
शब्द का विस्तृत है संसार,
शब्द मय है सारा संसार।

अभिलाषा चौहान
स्वरचित