विधाता का अन्याय
“किस बात को लेकर आप विचारमग्न हैं?”
मैंने मुकन्दी लाल जी से पूछा. वह आये तो दे गपशप करने पर बैठते ही किसी चिंता में
खो गये.
“सोच रहा था, विधाता भी कुछ लोगों के
साथ बहुत अन्याय करते हैं.”
“अब किस के साथ अन्याय कर दिया हमारे
विधाता ने?”
“इन विरासत-जीवियों के साथ. विधाता इन ‘देवों
के प्रिय’ लोगों को विरासत में सत्ता की कुर्सी तो देते हैं, पर न उन्हें समझदारी
प्रदान करते हैं और न ही दूरदर्शिता. विधाता को इन देवानामप्रियाओं से ऐसा क्रूर खेला
नहीं खेलना चाहिए. यह अन्याय है.”
“अगर कुछ लोगों में अक्ल की कमी है तो
इसमें विधाता का क्या दोष?”
“सच में यह विधाता का सरासर अन्याय है.
जब विधाता ने स्वयं विधान में लिख दिया होता है कि किस महापुरुष (या किस महामहिला)
के कैलाशवासी होने के पर उसकी सत्ता किस महापुरुष (या महामहिला) को विरासत में
मिलेगी, तो ऐसे विरासत-जीवी को किसी योग्य बनाना भी तो विधाता का ही कर्तव्य है.”
“अरे, यह आप क्या कह रहे हैं? मेहनत.......”
“वह सब रहने दीजिये. वह सब किताबी
बातें हैं.” मुकन्दी लाल जी ने मुझे बात पूरी न करने दी. “जब भाग्य में कुर्सी
लिखी थी तभी बाकी गुण देने का भी प्रबंध कर देना चाहिए था.”
“................” मैं तर्कहीन हो
गया.
“पर इसका परिणाम तो हम ग़रीबों को भोगना
पड़ता है.”
“वह कैसे?”
“ऐसे-ऐसे नमूनों को झेलना पड़ता है कि
समझ नहीं आता कि अपने भाग्य पर रोयें या हँसे.”
(यह सिर्फ एक व्यंग्य है. इसका किसी और
रूप में विश्लेष्ण न करें)
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