अरविंद केजरीवाल की जंग
अरविंद केजरीवाल की सरकार और एल जी के बीच चल रही तनातनी को लेकर दिल्ली की
उच्च न्यायालय ने अपना निर्णय दे दिया है. उच्च न्यायालय का निर्णय अरविंद
केजरीवाल विनम्रता से स्वीकार कर लेंगे ऐसा सोचना भी गलत होगा. वैसे भी इस निर्णय
को चुनौती देना उनका और उनकी सरकार का संवैधानिक अधिकार है, सुप्रीम कोर्ट का
निर्णय ही शायद उन्हें संतुष्ट कर पाए.
एक बात उन्हें और हर नागरिक को समझनी होगी कि प्रजातंत्र एक ऐसी व्यवस्था होती
है जहां सरकारें संविधान के अंतर्गत चलती हैं. ऐसे निज़ाम में व्यक्ति विशेष उतना
महत्वपूर्ण नहीं होता जितनी महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थाएं होती हैं. संविधान और
उसके अंतर्गत बने सब नियम, कानून, कार्यविधि वगैरह ही एक प्रजातंत्र को प्रजातंत्र
बनाये रखते हैं. अन्यथा कोई भी प्रजातंत्र किसी भी समय तानाशाही में परिवर्तित हो सकता है.
सभी परिपक्व प्रजातंत्रों में तो अलिखित परम्पराओं (constitutional
conventions) का भी लोग उतना ही सम्मान करते हैं जितना
सम्मान वह लिखित संविधान और कायदे-कानून का करते हैं. उदाहरण के लिए स्विट्ज़रलैंड की बात
करें, वहां फेडरल सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति एक चुनाव द्वारा होती है,
उम्मीदवार के पास किसी प्रकार का कानूनी प्रशिक्षण होने का कोई लिखित विधान नहीं
है, लेकिन परम्परा के अनुसार वहां विधिशास्त्र में पारंगत और जाने-माने विधिवेत्ता
ही सुप्रीम कोर्ट के जज चुने जाते हैं. इस परम्परा को तोड़ने की बात उस देश में कोई
सोच भी नहीं सकता.
हर प्रजातन्त्र में ऐसा यह सम्भव है कि किसी नागरिक की या किसी संवैधानिक
पद पर बैठे व्यक्ति की किसी नियम कानून को लेकर अपनी अलग धारणा हो. समय के साथ नए
नियम-कानून की भी आवश्यकता उठ खड़ी होती है. परन्तु पुराने नियम बदलने की और नए
कानून बनाने की अपनी एक संवैधानिक प्रक्रिया होती है जो न चाहते हुए भी हर एक को
अपनानी पड़ती है.
पर जब तक कोई कानून संवैधानिक प्रक्रिया द्वारा बदल नहीं दिया जाता या चुनौती
देने पर किसी न्यायालय द्वारा रद्द नहीं कर दिया जाता तब तक उसका पालन करना हर एक
का कर्तव्य है. चुनी हुई सरकारें संविधान और संवैधानिक संस्थाओं का जितना सम्मान
करेंगी उतना ही प्रजातंत्र मज़बूत होगा और आम लोगों का भी प्रजातांत्रिक व्यवस्था
में विश्वास पैदा होगा.
आश्चर्य की बात यह है कि अरविंद केजरीवाल एक सिविल अधिकारी रह चुके हैं, और
एक सिविल अधिकारी के लिए यह सब समझना बहुत
ही सरल होना चाहिए. एक बात और उन्हें समझनी होगी; अगर मुख्यमंत्री के पद पर बैठ कर
वह किसी नियम-कानून का पालन अपनी समझ और व्याख्या की अनुसार करना चाहतें तो क्या
ऐसा अधिकार वह हर एक को देने को तैयार हैं?
हमारा प्रजातंत्र अभी बहुत पुराना नहीं है इसलिए अभी लोगों की आस्था इसमें
कच्ची है. अच्छी संवैधानिक परम्परायें स्थापित करने में हमारे नेताओं की कोई अधिक
रूचि नहीं रही है. देश के कितने ही ज़िलों में लोग अपना भाग्य बदलने के लिए वोट के
बजाय बंदूक का सहारा ले रहे हैं. ऐसे में आवश्यक हो जाता है कि हमारे नेता लोगों
के सामने ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करें जिसका अनुकरण करने की प्रेरणा आम आदमी को भी
मिले.
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