क्यों नहीं जीत पाये हम ओलंपिक स्वर्ण पदक
फिर एक बार अंतर्राष्ट्रीय खेलों में हमारा प्रदर्शन निराशाजनक रहा. एक रजत और एक
कांस्य पदक पाकर भारत ने ओलंपिक पदक तालिका में ६७ स्थान पाया है.
हर बार की भांति इस मुद्दे पर खूब बहस होगी, शायद कोई एक-आध कमेटी भी बनाई जाये. लेकिन आशंका तो यही है कि चार
वर्षों बाद, टोक्यो ओलंपिक की समाप्ति पर,
हम वहीँ खड़े होंगे जहां आज हैं.
कई कारण हैं कि हम लोग खेलों में कभी भी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाये. खिलाड़ियों
के लिए सुविधाओं की कमी है, अच्छे कोच नहीं हैं, जो बच्चे व युवक-युवतियां खेलों
में आगे बढ़ने का साहस करते भी हैं उन के लिए जीविका का प्रश्न सामने आकर खड़ा हो
जाता है. अधिकतर स्पोर्ट्स एसोसिएशंस के
कर्ता-धर्ता वह लोग हैं जिनका खेलों से कोई भी नाता नहीं है.
पर मेरा मानना है कि अगर सुविधाओं में सुधार हो भी गया और अन्य खामियों को भी थोड़ा-बहुत दूर कर दिया गया तब भी खेलों के हमारे प्रदर्शन में आश्चर्यजनक सुधार नहीं होगा.
किसी भी खेल में सफलता पाने के लिए दो शर्तों का पूरा करना आवश्यक होता है.
पहली शर्त है, अनुशासन. हर उस व्यक्ति के लिए, जो खेलों से किसी भी रूप में
जुड़ा हो, अनुशासन का पालन करना अनिवार्य होता है. दिनचर्या में अनुशासन, जीवनशैली
में अनुशासन, अभ्यास में अनुशासन. अगर संक्षिप्त में कहें तो इतना कहना उचित होगा
कि अपने जीवन के हर पल पर खिलाड़ी का अनुशासन होना अनिवार्य है तभी वह सफलता की
कामना कर सकता है.
दूसरी शर्त है टीम स्पिरिट की भावना. अगर आप टीम के रूप में खेल रहें हैं
तो जब तक हर खिलाड़ी के भीतर यह भावना नहीं होगी तब तक सफलता असम्भव है. और अगर कोई
खिलाड़ी अकेले ही खेल रहा तब भी अपने कोच वगेरह के साथ एक सशक्त टीम के रूप में उसे
काम करना होगा.
अब हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या तो यह ही है कि अनुशासन के प्रति हम सब का
रवैया बहुत ही निराशाजनक है. एक तरह से कहें तो अनुशासनहीनता हमारे जींस में है.
अगर हम वीआइपी हैं तो अनुशासन की अवहेलना करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार बन जाता है.
अगर हम वीआइपी नहीं भी हों तब भी हम लोग अनुशासन के प्रति उदासीन ही रहते हैं. चाहे
टिकट काउंटर पर कतार में खड़े होने की बात हो या समय पर दफ्तर पहुँचने की, चाहे सड़क पर गाड़ी चलाने की बात हो या फूटपाथ पर
कूड़ा फैंकने की, अनुशासन की प्रति हमारा अनादर हर बात में झलकता है.
टीम स्पिरिट की भी हम में बहुत कमी है. घर में चार भाई हों तो वह भी मिलकर एक
साथ नहीं रह पाते. किसी दफ्तर में चले जाओ, वहां आपको अलग-अलग विभागों ओर
अधिकारियों में रस्साकशी चलती दिखाई पड़ेगी. पार्लियामेंट में जीएसटी बिल एकमत से
पास हुआ तो उसे एक ऐतिहासिक घटना माना जा रहा है. अन्यथा जो कुछ वहां होता है वह
सर्वविदित है.
अनुशासन और टीम स्पिरिट ऐसी भावनाएं हैं जो सुविधाओं वगेरह पर निर्भर नहीं
हैं, यह एक समाज की सोच पर निर्भर हैं. जिस तरह जापान विश्वयुद्ध के बाद खड़ा हुआ
वह उनकी सोच का परिचायक है. हाल ही में एक भयंकर सुनामी के बाद जो कुछ हुआ हम सबके
लिए एक संकेत है. इस विपदा से त्रस्त हो कर रोने-धोने के बजाय सब लोग उससे बाहर
उभरने के लिए एक साथ जुट गए.
क्या अगले चार वर्षों में अनुशासन की भावना हम में उपज जायेगी? क्या इन चार
वर्षों में जीवन के हर क्षेत्र में हम एक टीम की भांति काम करना शुरू कर देंगे?
ऐसा लगता नहीं. चार वर्षों बाद भी पदक तालिका में हम कहीं नीचे ही विराजमान होंगे,
और हर टीवी पर चल रही गर्मागर्म बहस का
आनंद ले रहे होंगे.
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