जो जागे हैं मगर उठते नहीं उनको जगाना क्या
खुदी को ख़ुद जगाना है किसी के पास जाना क्या
निज़ाम-ए-दौर-ए-हाज़िर का बदलने को चले थे तुम
बिके कुर्सी की खातिर तुम तो ,फिर झ्ण्डा उठाना क्या
ज़माने को ख़बर है सब तुम्हारी लन्तरानी की
दिखे मासूम से चेहरे ,असल चेहरा छुपाना क्या
न चेहरे पे शिकन उसके ,न आँखों में नदामत है
न लानत ही समझता है तो फिर दरपन दिखाना क्या
तुम्हारी बन्द मुठ्ठी को समझ बैठे थे लाखों की
खुली तो खाक थी फिर खाक कोअब आजमाना क्या
वही चेहरे ,वही मुद्दे ,वही फ़ित्ना-परस्ती है
सभी दल एक जैसे है ,नया दल क्या,पुराना क्या
इबारत है लिखी दीवार पर गर पढ़ सको ’आनन’
समझ जाओ इशारा क्या ,नताइज को बताना क्या
शब्दार्थ
निज़ाम-ए-दौर-ए-हाज़िर = वर्तमान काल की शासन व्यवस्था
लन्तरानी = झूटी डींगे/शेखी
नदामत = पश्चाताप/पछतावा
लानत = धिक्कार
फ़ित्ना परस्ती = दंगा/फ़साद को प्रश्रय देना
नताइज़ = नतीजे परिणाम
-आनन्द.पाठक-
08800927181
शरद पूर्णिमा की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (16-10-2016) के चर्चा मंच "शरदपूर्णिमा" {चर्चा अंक- 2497 पर भी होगी!
खूबसूरत ग़ज़ल। मजा आ गया पढ़कर।
जवाब देंहटाएंखूबसूरत ग़ज़ल। मजा आ गया पढ़कर।
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