एक क़ता
नशा पैसे का हो या पद का, सर चढ़ बोलता है
बहक जाए कभी तो राज़-ए-दिल भी खोलता है
बलन्दी आसमां सी है मगर ईमान बौना
जहाँ ज़र दिख गया ईमान उसका डोलता है
ज़ुबाँ शीरी ,नरम लहजा , हलावत गुफ़्तगू में
ज़ुबाँ जब खोलता है तो हलाहिल घोलता है
नशा इतना कि इन्सां को नहीं इन्सां समझता
हक़ीक़त ये कि खिड़की तक नहीं वो खोलता है
शब्दार्थ
ज़र =सोना/धन
शीरी = मीठी
हलावत = मधुर
हलाहिल =हलाहल/विष/ज़हर
-आनन्द पाठक-
08800927181
नशा पैसे का हो या पद का, सर चढ़ बोलता है
बहक जाए कभी तो राज़-ए-दिल भी खोलता है
बलन्दी आसमां सी है मगर ईमान बौना
जहाँ ज़र दिख गया ईमान उसका डोलता है
ज़ुबाँ शीरी ,नरम लहजा , हलावत गुफ़्तगू में
ज़ुबाँ जब खोलता है तो हलाहिल घोलता है
नशा इतना कि इन्सां को नहीं इन्सां समझता
हक़ीक़त ये कि खिड़की तक नहीं वो खोलता है
शब्दार्थ
ज़र =सोना/धन
शीरी = मीठी
हलावत = मधुर
हलाहिल =हलाहल/विष/ज़हर
-आनन्द पाठक-
08800927181
bahut sundar
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (07-10-2016) के चर्चा मंच "जुनून के पीछे भी झांकें" (चर्चा अंक-2488) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएंशारदेय नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'