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मंगलवार, 19 दिसंबर 2017

चिड़िया: दो बालगीत

चिड़िया: दो बालगीत: 1- जानवरों का नववर्ष जंगल के पशुओं ने सोचा हम भी धूम मचाएँ , मानव के जैसे ही कुछ हम भी नववर्ष मनाएँ ! वानर टोली के जिम्मे है फल-फू...

रविवार, 26 नवंबर 2017

चिड़िया: बूँद समाई सिंधु में !

चिड़िया: बूँद समाई सिंधु में !: प्रीत लगी सो लगि गई, अब ना फेरी जाय । बूँद समाई सिंधु में, अब ना हेरी जाय ।। हिय पैठी छवि ना मिटे, मिटा थकी दिन-रैन । निर्मोही के ...

सोमवार, 13 नवंबर 2017

चिड़िया: पुस्तक समीक्षा - "मन दर्पण"

चिड़िया: पुस्तक समीक्षा - "मन दर्पण": पुस्तक समीक्षा रचना – मन दर्पण. रचनाकार – माड़भूषि रंगराज अयंगर. प्रकाशक – बुक बजूका पब्लिकेशन्स, कानपुर. मूल्य – रु. 175 मात्र ...

मंगलवार, 7 नवंबर 2017

चिड़िया: जब शरद आए !

चिड़िया: जब शरद आए !: ताल-तलैया खिलें कमल-कमलिनी मुदित मन किलोल करें हंस-हंसिनी ! कुसुम-कुसुम मधुलोभी मधुकर मँडराए, सुमनों से सजे सृष्टि,जब शरद आए !!! ...

रविवार, 5 नवंबर 2017

चिड़िया: जीवन - घट रिसता जाए है...

चिड़िया: जीवन - घट रिसता जाए है...: जीवन-घट रिसता जाए है... काल गिने है क्षण-क्षण को, वह पल-पल लिखता जाए है... जीवन-घट रिसता जाए है । इस घट में ही कालकूट विष, अमृत है इस...

गुरुवार, 2 नवंबर 2017

चिड़िया: आनंद की खोज

चिड़िया: आनंद की खोज: आनंद की खोज आओ साथी मिलकर खोजें, जीवन में आनंद को, क्रोध, ईर्ष्या, नफरत त्यागें पाएँ परमानंद को... जीवन की ये भागादौड़ी, लगी रही ह...

मंगलवार, 31 अक्टूबर 2017

Laxmirangam: डिजिटल इंडिया - मेरा अनुभव.

Laxmirangam: डिजिटल इंडिया - मेरा अनुभव.: डिजिटल इंडिया – मेरा अनुभव. उस दिन मेरे मोबाईल पर फ्लेश आया. यदि आप जिओ का सिम घर बैठे पाना चाहते हैं तो यहाँ क्लिक करें. मैंने क्लिक क...

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शनिवार, 28 अक्टूबर 2017

चिड़िया: रहिए जरा सँभलकर

चिड़िया: रहिए जरा सँभलकर: रहिए जरा सँभलकर  मंजिल है दूर कितनी,  इसकी फिकर न करिए बस हमसफर राहों के,  चुनिए जरा सँभलकर... काँटे भी ढूँढते हैं,  नजदीकियों के ...

सोमवार, 23 अक्टूबर 2017

चिड़िया: खामोशियाँ गुल खिलाती हैं !

चिड़िया: खामोशियाँ गुल खिलाती हैं !: रात के पुर-असर सन्नाटे में जब चुप हो जाती है हवा फ़िज़ा भी बेखुदी के आलम में हो जाती है खामोश जब ! ठीक उसी लम्हे, चटकती हैं अनगिनत कलि...

रविवार, 22 अक्टूबर 2017

Laxmirangam: साजन के गाँव में.

Laxmirangam: साजन के गाँव में.: साजन के गाँव में. आज मत रोको मुझे, साजन के गाँव में, सुनो मेरी छम छम, बिन पायल के पाँव में. आलता मँगाऊँगी मैं, मेंहदी  रच...

रविवार, 15 अक्टूबर 2017

Laxmirangam: धड़कन

Laxmirangam: धड़कन: धड़कन संग है तुम्हारा आजन्म, या कहें संग है हमारा आजन्म. छोड़ दे संग परछाईं जहाँ, उस घनेरी रात में भी, गर तुम नहीं हो सा...

शनिवार, 14 अक्टूबर 2017

एक ग़ज़ल : मिलेगा जब वो हम से---

 ग़ज़ल : मिलेगा जब भी वो हमसे---


मिलेगा जब भी वो हम से, बस अपनी ही सुनायेगा
मसाइल जो हमारे हैं  , हवा  में  वो   उड़ाएगा

अभी तो उड़ रहा है आस्माँ में ,उड़ने  दे उस को
कटेगी डॊर उस की तो ,कहाँ पर और जायेगा ?

सफ़र में हो गया तनहा ,तुम्हारे  साथ चल कर जो
वो यादों के चरागों को  जलायेगा  ,बुझायेगा

कहाँ तक खींच कर लाई ,तुझे यह ज़िन्दगी प्यारे
अगर तू लौटना चाहे , नहीं  तू  लौट पायेगा

इस आँगन का शजर है बस इसी उम्मीद में ज़िन्दा
परिन्दा जो गया है छोड़ , वापस लौट आयेगा

वो रिश्तों की लगाता बोलियाँ बाज़ार में जा कर
जिसे करनी तिजारत है वो रिश्ते क्या निभायेगा

अरे ! क्या सोचता रहता यहाँ पर बैठ कर ’आनन’
गये हैं लोग सब कुछ छोड़ ,तू  भी  छोड़ जायेगा 

-आनन्द.पाठक-

शुक्रवार, 6 अक्टूबर 2017

एक ग़ज़ल : छुपाते ही रहे अकसर---

एक ग़ज़ल : छुपाते ही रहे अकसर--

छुपाते ही रहे अकसर ,जुदाई के दो चश्म-ए-नम
जमाना पूछता गर ’क्या हुआ?’ तो क्या बताते हम

मज़ा ऐसे सफ़र का क्या,उठे बस मिल गई मंज़िल
न पाँवों में पड़े छाले  ,न आँखों  में  ही अश्क-ए-ग़म

न समझे हो न समझोगे ,  ख़ुदा की  यह इनायत है
बड़ी क़िस्मत से मिलता है ,मुहब्बत में कोई हमदम

हज़ारों सूरतें मुमकिन , हज़ारों  रंग भी मुमकिन
मगर जो अक्स दिल पर है किसी से भी नहीं है कम

ख़िजाँ का है अगर मौसम ,दिल-ए-नादाँ परेशां क्यूँ
सभी मौसम बदलता है  ,बदल जायेगा ये मौसम

नहीं देखा सुना होगा  ,जुनून-ए-इश्क़ क्या होता
कभी ’आनन’ से मिल लेना ,समझ जाओगे तुम जानम

-आनन्द.पाठक-

मंगलवार, 3 अक्टूबर 2017

एक ग़ज़ल : बहुत अब हो चुकी बातें----


ग़ज़ल : बहुत अब हो चुकी बातें------

बहुत अब हो चुकी बातें तुम्हारी ,आस्माँ की
उतर आओ ज़मीं पर बात करनी है ज़हाँ की

मसाइल और भी है ,पर तुम्हें फ़ुरसत कहाँ है
कहाँ तक हम सुनाएँ  दास्ताँ  अश्क-ए-रवाँ की

मिलाते हाथ हो लेकिन नज़र होती कहीं पर
कि हर रिश्ते में रहते सोचते  सूद-ओ-जियाँ की

सभी है मुब्तिला हिर्स-ओ-हसद में, खुद गरज हैं
यहाँ पर कौन सुनता है  अमीर-ए-कारवां  की

वही शोले हैं नफ़रत के ,वही फ़ित्नागरी  है
किसे अब फ़िक़्र है अपने वतन हिन्दोस्तां की

हमें मालूम है पानी कहाँ पर मर रहा  है
बचाना है हमें बुनियाद  पहले इस मकाँ  की

तुम्हारे दौर का ’आनन’ कहो कैसा चलन है?
वही मारा गया जो  बात करता है ईमाँ  की

-आनन्द.पाठक--

शब्दार्थ
मसाइल =समस्यायें
अश्क-ए-रवाँ = बहते हुए आँसू
सूद-ओ-ज़ियाँ = हानि-लाभ/फ़ायदा-नुक़सान
मुब्तिला =लिप्त
हिर्स-ओ-हसद= लोभ लालच इर्ष्या द्वेष
पित्नागरी = दंगा फ़साद

सोमवार, 2 अक्टूबर 2017

एक व्यंग्य : अनावरण एक गाँधी मूर्ति का-------

[ 2--अक्टूबर -- गाँधी जयन्ती के अवसर पर ---]
डायरी के पन्नों से-----------------------
एक व्यंग्य : अनावरण एक गाँधी मूर्ति का-------

......नेता जी ने अपनी गांधी-टोपी सीधी की।रह रह कर टेढी़ हो जाया करती है। विशेषत: जब वह सत्ता सुख से वंचित रहते हैं।धकियाये जाने के बाद टेढी़-मेढ़ी ,मैली-कुचैली हो जाती है।समय-समय पर सीधी रखना एक बाध्यता हो जाती है,अन्यथा विरोधी दल ’टोपी-कोण" पर ही हंगामा शुरू कर सकते हैं। विपक्ष के पास वैसे भी मौलिक मुद्दों की कमी बनी रहती है।व्यर्थ में प्रचार करना शुरू कर देंगे-’देखा!,कहते थी न ,नेता जी की टोपी टेढ़ी न हो जाए तो कहना’।इसी अप्रत्यक्ष भय से आक्रान्त ,नेता जी ने अपनी टोपी सीधी की तथा मनोगत गांधी जी को कोसा-’ अपने तो पहनते नहीं थे हमें पहना गये।पहनते तो मालूम होता कि आज की राजनीति में टोपी सीधी रखना कितना दुष्कर व कष्ट साध्य है। करते रहो आजीवन सीधी।अरे! जो पहनते नहीं वो तो ’कैबिनेट ’ में घुसे हैं और हम हैं कि सीधी करते-करते सड़क पर आ गए।’
यही दर्द ,यही टीस लिए मंच पर बैठे हुए नेता जी भाषण हेतु उठे। माइक के सामने आए।ठक-ठक कर टेस्ट किया ।आवाज़ बरोबर निकलेगी तो ? धोखा तो नही देगी? आश्वस्त हुए।तत्पश्चात उपस्थित जन समुदाय का अवलोकन किया,किसी अनुभवी बूचड़ की तरह-’काश ! यह समस्त भीड़ मेरी बूचड़्खाने में आ जाती और ’वोट’ में बदल जाती! इसी कल्पना मात्र से मन आत्मविभोर हो गया ,नयनों में एक विशेष चमक उभर आई। परन्तु अविलम्ब नेता जी ने गम्भीरता का आवरण ओढ़ लिया कि कहीं इस मनोगत हर्ष को लोग ’टुच्चापन’ न समझ लें।लोकतन्त्र है,समझ सकते हैं। फिर एक दॄष्टि उस मूर्ति पर किया जिसका उन्होने अभी-अभी अनावरण किया था और फोटो खिंचवाये थे ।ऐसे अवसरों की छवि काफी मान्यता रखती है ,सनद रहती है ,वक्त ज़रूरत काम आती है।चुनाव टिकट वितरण,छीना-झपटी में संभवत: दिखाना पड़ जाए -कितने फ़ीते काटे,कितने वोट काटे, कितने फ़ोटू खिंचवाये ?
फिर मंच पर बिछी ज़ाज़िम को देखा। वर्षों से नेताओं का भार ढोते-ढोते जीर्ण-शीर्ण व गन्दी हो चली है।इसको बदलने की आवश्यकता को कोई महसूस नहीं करता । वो लोग भी नहीं ,जिन्होने इसे जीर्ण-शीर्ण-विदीर्ण बनाया है। शून्य आँखों से ऊपर शामियाने को देखा।कहाँ-कहाँ से क्षेत्रीय टुकड़े लाकर जोड़ दिया है जुम्मन मियां ने -किसी मिली-जुली साझा सरकार की तरह।कितने छिद्र हो गए हैं यत्र-तत्र।साझा सरकार यानी शामियाने को यह भ्रम है कि टंगा है जनता के सर पर रक्षा के लिए।यदि लोकतन्त्र के अन्य स्तंभ न होते ---न्यायपालिका के ,---कार्यपालिका के ---मीडिया के----या हमारे जैसे ज़मीन में धँसे कर्मठ कार्यकर्ताओं के,तो क्या यह शामियाना टंगा रह सकता था?इसी मनन-चिन्तन में डूबे नेताजी ने अपना दायाँ पैर आगे बढा़ ,बायाँ पैर पीछे खींच ,हाथ पीछे बाँध,गला खँखारा फिर प्रस्फुटित हुए...
" देवियो और सज्जनो !(मनोगत ---इस सभा के बाद गारंटी नहीं है ’देवियों की )
-आज बड़े ही हर्ष का विषय है कि आप से मिल-बैठ कर , आमने-सामने, दो-चार बात करने का सुअवसर प्राप्त हुआ है।आप लोगो ने यहाँ पधारने का जो कष्ट किया है उससे गांधी जी की मूर्ति ,मेरा अभिप्राय है कि यह समारोह कृतज्ञ हुआ ।हमने आप की समस्यायें सुनी ,आप हमारी सुने।यही सौहाद्र है ,यही परस्पर प्रेम है ,यही भाई चारा है।"
नेता जी एक पल चुप होते हैं।चिन्तन की मुद्रा अपनाते है। आँखे बन्द करते है। अभी प्रथम गियर में चल रहे हैं,लोहा गरम हो रहा है ।
".....अभी अभी हमने जिन महापुरुष की मूर्ति का अनावरण किया है,संभवत: उनसे आप सभी लोग परिचित होंगे।जो पुरानी पीढ़ी के है उन्होने गांधी जी का नाम अवश्य सुना होगा। जो नई पीढी़ के हैं उनकी सुविधा हेतु नाम नीचे लिखवा दिया है जिससे हमारे नौजवान भाईयों को मूर्ति पहचानने में कोई असुविधा न हो।इधर हमारी युवा-पीढी़ में एक नई प्रतिभा पनप रही है -मूर्ति-भंजन विधा की,कोलतार लेपन कला की। इसमे उनका दोष नहीं है। दोष है तो हमारी विरोधी पार्टी का। नाम नहीं लूंगा । हमारी युवा-पीढी को भटका रही है ,गुमराह कर रही है। उसमे एक दिशा-बोध की कमी पैदा कर रही है।इस कोलतार-लेपन कला में,विदेशी विशेषत: पड़ोसी देश की छिन्न-भिन्नात्मक शक्तियों का हाथ है इसीलिए मूर्ति के नीचे नाम लिखवा दिया है कि युवा पीढ़ी आगे आए ,पढ़े व गांधी जी के नाम से परिचित हो । कहीं ऐसा न हो कि कोलतार-लेपन या मूर्ति-भन्जनोपरान्त आप सुबह-सुबह ग्लानी से भर उठें -हाय! हमने तो जाना ही नहीं कि यह किस महान आत्मा की मूर्ति थी! ... तो भाईयो और बहनो !मै इस तहसील के नुक्कड़ से ,देश की समस्त युवा पीढी़ का आह्वान करता हूँ कि अब वक्त आ गया है गांधी जी की मूर्ति पहचानने का ,नाम पढने का ......"
तालियां बजने लगी। नारे लगने लगे -नेता भईया ज़िन्दाबाद ! ज़िन्दाबाद!..लोहा गरम होने लगा ,गाड़ी गियर पकड़ने लगी।
" ....आप को ज्ञात है ,इस सभा में अन्य दलों के कुछ कार्यकर्ता भाई लोग भी उपस्थित हैं। मैं नाम लेना उचित नहीं समझता ....परन्तु यह सर्व विदित है ,,,’छमिया रेप-काण्ड में कौन-कौन लोग शामिल थे ? नथुआ-हत्या काण्ड किसने कराया? अरे! नथुआ वही जो दलित था,शोषित था ।अब बचने के लिए पार्टी का सहारा लेते हैं ।...हमने स्पष्ट कर दिया है ,नहीं भाई ,नहीं । पार्टी ऐसे छिछोरे ,छोटी-मोटी हरकतों के लिए नहीं होती ---देश में इससे भी बड़े-बड़े काम है जिसमे पार्टी को काम करना है मसलन चारा घोटाला.चीनी घोटाला.नरेगा घोटाला .हवाला..नारी पर अत्याचार..गाँव की बहू-बेटियों पर अत्याचार
,हमारे घर-परिवार के सदस्यों, भाई-भतीजों पर अत्याचार। हमें बर्दाश्त नहीं करना है । हमें इस तहसील के नोनी माटी की कसम ,गांधी जी के डण्डे की सौगन्ध ,इन फासिस्टवादी शक्तियों को बेनकाब करना है....."
"...बोलिए भारतमाता की जय!.." -भीड़ ने जयघोष किया ।तालियां बजने लगी। भीड़ में जोश का संचार होने लगा।आयोजको में उत्साह-वर्धन होने लगा,लोहा गर्म होने लगा,गाड़ी गियर पकड़ने लगी। नेता जी एक क्षण चुप हो ,तालियों की संख्या गिनने लगे।
".....हाँ ,तो मै क्या कह रहा था? हाँ ,तो फासिस्टवादी शक्तियों को बेनकाब करना है । मैं अपने किसान भाईयो को, श्रमिक भाईयों को यह बता दूँ इन शक्तियों क मूल इस गाँव में नहीं ,इस तहसील में नहीं,हमारे-आप के अन्दर नहीं ,इनका मूल है दिल्ली में ,हमें दिल्ली जाना होगा मूलोच्छेदन करने।आशा है आगामी आम चुनाव में ह आप हमारा खयाल अवश्य रखेंगे....."
---भीड़ ने पुन: जयघोष किया-’नेता भईया -ज़िन्दाबाद,ज़िन्दाबाद।जबतक सूरज चाँद रहेगा-नेता भईया नाम रहेगा। भाई साहब संघर्ष करो-हम तुम्हारे साथ हैं...देश का नेता कैसा हो....भईया जी जैसा हो----.? जैसे नपुंसक नारों से शामियाना गूँज उठा। नेता चाहे जैसा हो,पार्टी चाहे जिसकी हो,आयोजन चाहे जो हो-ऐसे ही शक्ति-शून्य --नपुंसक नारे लगते हैं। तालियां बजती है...कोलाहल बढ़ता है..लोकतन्त्र आगे बढता है।
"....भाईयों शान्त रहें,शान्त रहें!अपना अपना आसन ग्रहण कर लीजिए । अरे हरहुआ ! बैठता काहे नहीं है रे ? हाँ तो अब मूल विषय पर आता हूँ इन महापुरुष के संबंध में जिनका अभी-अभी हमलोगो ने अनावरण किया है-इसका समस्त श्रेय गजाधर बाबू को जाता है जो इस क्षेत्र के एक सक्रिय व कर्मठ कार्यकर्ता समाजसेवी हैं ,सौभाग्यवश आज हमारे बीच उपस्थित भी हैं।मेरे बाद आप इनके भी विचार सुनेगे और लाभान्वित होंगे।इस क्षेत्र की जनता के लिए गांधी जी की एक मूर्ति की आवश्यकता बहुत वर्षों से महसूस की जा रही थी जो गजाधर बाबू के अनवरत प्रयास व सतत संघर्ष से चालीस साल बाद संभव हुआ। इस पुण्य कार्य हेतु गजाधर बाबू धन्यवाद के पात्र ही नहीं,महापात्र हैं।
"...अब इस क्षेत्र के नौजवानों भाईयो को,श्रमिको को ,किसानो को,बच्चो को ,महिलाओं को,सुहागिनों को,विधवाओं को,लूलों को,लंगडो़ को २-अक्तूबर के दिन ट्रैक्टरों मे लद-लद कर शहर नहीं जाना पड़ेगा ।यहीं पर श्रद्धा सुमन चढ़ा देंगे।अपना चर्खा यहीं धो-पोछ कर लायेंगे और गांधी जी के श्री चरणों में बैठ कर रामधुन गायेंगे,सूता कातेंगे और फोटू खिंचवा लेंगे। अन्यथा दो घन्टे के काम के लिए दिन भर लग जाता था।आप के सालो साल का आवन-जावन का कष्ट नहीं देखा जा सका गजाधर बाबू से ,सो एक अदद मूर्ति यहीं स्थापित करवा दी।"
पुन: जयघोष हुआ -गजाधर बाबू ज़िन्दाबाद..ज़िन्दाबाद...जब तक सूरज चाँद रहेगा....-एक नारा उछला तो गजाधर बाबू के खादी कुर्ते को इत्र की तरह भिंगो गया। मंच गमक गया ।गजाधर बाबू हर्षित हो गए,मन प्रफुल्लित हो गया। परन्तु तुरन्त गंभीरता का का दुशाला ओढ़ ,हाथ जोड़,भाव-विभोर हो,श्रद्धावश सर झुका लिया।नारे के प्रति श्रद्धा? ज़िन्दाबाद के प्रति समर्पण? या उपस्थित जनसमुदाय के प्रति प्रेम विह्वलता?
"....और अन्त में ,आप लोगो का ज्यादा समय नहीं लूंगा। और भी हमारे कई भाई है जो हमारे बीच मंच पर उपस्थित है।आप उनके भी विचार सुनेंगे। इच्छा होते हुए भी आप लोगो के बीच ज्यादा समय नहीं दे पा रहा हूँ।आज सुबह जब डी०एम० साहब के यहाँ नाश्ता कर रहा था तो पी०एम० आफ़िस से काल मिला-भाई साहब ! तुरन्त दिल्ली पहुँचो । क्या करे! ससुरा वक्त ही नहीं मिलता, हम अपने गरीब भाईयों को देखें कि लख्ननऊ ,दिल्ली देंखे? कई बार कहा कि भाई साहब इतना लखनऊ दिल्ली न बुलाया करो ,हमें अपने ग्रामीण भाईयों को देखना है ।पहले (चुनाव के पहले?) हम उनके है बाद (चुनाव के बाद?) में हम आप के है ,दिल्ली के हैं।...तो भाईयों मैं महात्मा जी को शत शत प्रणाम करता हूँ ,उनके दण्ड को प्रणाम करता हूँ जिससे उन्होने अंग्रेजों को मार भगाया । आज विघटनकारी शक्तियाँ फ़िर सर उठा रहीं हैं---क्या कश्मीर क्या असम...क्या तमिलनाडु क्या झारखण्ड। क्या उत्तराखण्ड क्या सामनेवाले गाँव का दखिन टोला।अब डण्डा पकड़ कर काम नहीं चलने वाला ...अब इसे चलाना पड़ेगा..."
जोरदार तालियां बजने लगी । "भाई जी संघर्ष करो ...’-जैसे नारे लगने लगे।प्रतीत हो रहा था कि किराए की इस भीड़ को इन नारों के अतिरिक्त कुछ ज्ञात नहीं था ।या 10-10 रुपए पर आए ये लोग इससे ज्यादा नारा लगाना नहीं चाहते थे आठ आना प्रति नारा,चार आना नारा लगाने का,चार आना हाथ लहराने का। डिस्को स्टाईल के दर अलग।
"... तो भाईयो और बहनो ! अन्त में आप से कहना चाहूँगा......" नेता जी अन्त में,अन्त में करते करते ३ घन्टे बाद अन्तिआए ,और जो सबसे अन्त में कहा था वह यह था -’आगामी चुनाव में मुझे दिल्ली भेजना न भूलें?
०० ००० ०००००
सभा विसर्जित हो गई।भीड़ लौट गई।बगल वाले कनात में मध्याह्न भोज का एक छोटा सा आयोजन था । मुर्ग-मुसल्लम,मांस-मछली,दवा-दारु आदि का समुचित प्रबन्ध था। आयोजकगण सस्वाद खा रहे थे । बोतल पर बोतल शराब ढाली जा रही थी । गांधी जी निरीह व निस्पॄह भाव से गले में माला धारण किए देख रहे थे। पत्थर के थे। मानवीय भावों से ऊपर।पीड़ा-करुणा से ऊपर ,बहुत ऊपर।
गजाधर बाबू ने उत्साह वर्धन किया। मुस्कराते हुए बोले-" बेटा ! जान डाल दी भाषण में।’
नेता जी ने करबद्ध हो,शीश झुका लिया और एक आन्तरिक पीडा़ संजोए दीर्घ सांस छोड़्ते हुए कहा-"दद्दा! सब आप का आशीर्वाद है ,पर स्साले दिल्ली वाले कुछ नहीं सोचते ,मेरे बारे में"
" ज़रूर सोचेंगे बेटा,ज़रूर सोंचेगे एक दिन’-उससे भी बडी़ पीड़ा लिए,गजाधर बाबू ने उससे भी गहरा उच्छवास छोड़ते हुए कहा-" मुझे ही देख ,इसी आशा में मैं बूढा़ हो चला ,दिल्ली को मेरे बारे में सोचना ही पडे़गा...."
ज्ञात हुआ दोनो व्यक्ति दिल्ली को एक घंटा तक अपने प्रति सोचवाते रहे।
गांधी जी की मूर्ति-स्थापना से गाँव वालों का भला हुआ कि नहीं, कहा नहीं जा सकता। परन्तु एक सत्य नि:संदेह व निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि आस-पास गाँव कि जितने नशेड़िए, गंजेड़िए ,भंगेड़िए थे उनका काफी भला हुआ ।अब खोली में छुप कर नशा करने की आवश्यकता नहीं थी ।रात के अंधेरे में गांधी चबूतरा ही काफी था। गांधी जी स्वयं प्रकाश - पुंज थे अत: अधिकारियों ने रोशनी की व्यवस्था करना आवश्यक नहीं समझा। सारे नशेड़िए मिल कर दम लगाते थे । पुलिस उधर नहीं जाती थी। पुलिस को गांधी जी से क्या काम? गांधी चबूतरा अभयक्षेत्र हो गया ।गंजेडियों क भय दूर हो गया,भय से मुक्ति।गांधी जी भी तो यही चाहते थे ।दिन में गांधी जी की मूर्ति के ऊपर सारे कबूतर विष्ठा करते थे और सारे नशेबाज......
मूर्तियां स्थापित हो जाती हैं और सभी लोग अपनी-अपनी सुविधा से इसका उपयोग करते हैं।
अस्तु!
-आनन्द.पाठक-

शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

Laxmirangam: मेरा जिन्न

Laxmirangam: मेरा जिन्न: मेरा जिन्न                     कल सुबह अचानक ही मेरी मौत हो गई.                मैं लाश लिए काँधे किसी दर निकल पड़ा,      ...

एक व्यंग्य : रावण का पुतला---

  एक लघु कथा  : ----रावण का पुतला

 ---- आज रावण वध है । 40 फुट का पुतला जलाया जायेगा । विगत वर्ष 30 फुट का जलाया गया था } इस साल बढ़ गया रावण का कद। पिछ्ले साल से से इस साल बलात्कार अत्याचार ,अपहरण ,हत्या की घटनायें बढ़ गई तो ’रावण’ का  कद भी बढ गया।रामलीला की  तैयारियाँ पूरी हो चुकी हैं  मैदान में भीड़ इकठ्ठी हो रही है । बाल बच्चे,  महिलायें , वॄद्ध,  नौजवान धीरे धीरे आ रहे हैं ।आज रावण वध देखना है  । मंच सजाया रहा है । इस साल मंच भी बड़ा बनाया जा रहा है ।  इस साल वी0आई0पी0 -लोग ज़्यादा आयेंगे। सरकार में कई पार्टियों का योगदान है- सभी पार्टियों के नेताओं को जगह देना  है मंच पर । पिछली साल ’अमुक’ पार्टी के नेता जी बिफ़र गये थे मंच पर ।-धमकी देकर गए थे---’हिन्दुत्व ’ पर ,आप का ही खाली ’कापी -राईट’ नही है  है ? --हमारा भी है। इसी लिए तो ’काँग्रेस’  छोड़ कर इधर आये  वरना उधर क्या बुरे थे?  इस बार कोई दूसरा नेता न बिदक जाये -इस लिए मंच बड़ा रखना ज़रूरी है सबको जगह देना है --सबका साथ -सबका विकास। ’राम-सीता-लक्षमण-हनुमान ’ की जगह कम पड़ गई  -तो क्या हुआ ?-} उन्हें  जगह की क्या ज़रूरत ।वो तो सबके दिल में है  परन्तु वी0आई0पी0 लोगो को मंच पर जगह कम न पड़ जाये।
नेता आयेंगे।अधिकारी गण आयेंगे। रावण वध देखने। मंच पर वो भी आयेंगे जिन पर ’बलात्कार’ का आरोप है ---वो भी आयेंगे जिनपर  ’घोटाला’ का आरोप है ---वो भी आयेंगे जो ’बाहुबली’ है जिन्होने आम जनता के ’ खून’ का बूँद बूँद अपने ’घट’ में भरा है---रावण ने भी भरा था। वो भी आयेंगे जो कई ’लड़कियों’ का अपहरण कर चुके है -वो भी आयेंगे जिन पर ’रिश्वत’ का आरोप है ।’भारत तेरे टुकड़े होंगे’ वाले भी आयेंगे ।कहते है_ आरोप से क्या होता है ? सिद्ध भी तो होना चाहिये। सब भगवान को माला पहनायेंगे--बगल में कोने में सिमटे ’भगवान’ जी सब सुन रहे हैं -उन्हे ’रावण वध’ करना है --इधर वाले का नहीं --सामनेवाले  का --पुतले का।
उधर रावण का पुतला खड़ा किया जा रहा है -भारी है । अपने पापों से भारी है ।सेठ जी ने बड़ा चन्दा  देख कर खड़ा करवाया  है।  कमेटी वालों ने येन केन प्रकारेण ’पुतला’ खड़ा कर के सीना चौड़ा किया और चैन की साँस ली । पुतला खड़ा हो गया मैदान में उपस्थित सभी लोगों ने तालिया बजाई । सब की नज़र में आ गया रावण का पुतला --उसका पाप --उसका ’अहंकार’ --उसका ’लोभ--उसका रूप ’ । यही तो देखने आए हैं इस मेला में। ऐसे पापियों का नाश अवश्य होना चाहिए} वध में अभी विलम्ब है। राम- लक्ष्मण जी अपना तीर धनुष लेकर पहुँच चुके हैं --मगर रावण को अभी नहीं मार सकते ।भगवान को इन्तेज़ार करना पड़ेगा। मुख्य अतिथि महोदय अभी नहीं पहुँचे हैं।
मैदान में लोग आपस में बात चीत कर रहे हैं --समय  काटना है। क्या करें तब तक।
कान्वेन्ट के एक बच्चे ने रावण के पुतले को देख कर अपनी जिज्ञासा ज़ाहिर किया-"मम्मा हू इस दैट अंकल"?
"बेटा ! ही इस ’रावना’ --लाइक योर डैडू । रामा विल किल ’रावना’-थोड़ी देर में
बच्चे को -’डैडू’ वाली बात तो  समझ में नहीं आई ,पर ’रामा’ किल ’रावना’ वाली समझ में आ गई
उधर "हरहुआ’ अपने काका को बता रहा था  --’काका ! ई अब की बार का पुतला न बड़ा जानदार बनाया है } महँगा होगा?
काका ने अपना अर्थ शास्त्र का ज्ञान बताया--- हाँ  ! अरे ! बड़े आदमी का पुतला भी मँहगा होता है रे । हम गरीबन का थोड़े ही है कि एक मुठ्टी घास ले कर फूंक  दिया ---
रमनथवा की बीबी ने कान में अपने मरद से कुछ कहा -"सुनते हो जी ! हमें तो आजकल महेन्दरा की नीयत ठीक नहीं लगती---बोली-ठोली करता रहता है  --हमें तो उसकी नज़र में खोट नज़र आ रहा है---"
’अच्छा ! स्साले को ठीक करना पड़ेगा"-रामनाथ ने बोला--"बहुत चर्बी चढ़ गई है उस को . बड़ा ’रावण’ बने फिर रहा है ।छोड़ , तू रावण देख---"
उधर शर्मा जी ने माथुर साहब से कहा -" या पुतला इस वेरी नाइस --बट  इट लैक ए ’टाई’
माथुर साहब ने हामी भरी ---यस सर ! हम लोग ’टाई ’ में कितना ’नाइस" लगता है--बेटर दैन ’रावना’
 भीड़ बेचैन हो रही थी । मुख्य अतिथि महोदय अभी तक पहुँचे नही ।मोबाईल से खबर ले रहे हैं --अरे  कितनी  भीड़ पहुँची  है मैदान में  अभी ?---नेता जी के चेला-चापड़ खबर दे रहे हैं  कि बस सर आधा घंटा और ।पहुँचिए रहें हैं लोग । नेता जी तो भीड़ से ही जीते हैं  ---रावण को क्या मारना ...?जल्दी क्या है ?--- वो तो हर साल ही मरता है । चुनाव तो इस साल है।   राम जी उधर अपना डायलाग’ याद कर रहे हैं
--अब रावण भी बेचैन होने लगा। एक तो मरना और उस पर खड़ा होने की सज़ा ।पता नहीं ये मुख्य अतिथि का बच्चा कब आयेगा  उसका धैर्य अब जवाब देने लगा । अन्त में बोल उठा---
"हा ! हा ! हा! हा! मैं ’रावण’ हूं
भीड़ उस की तरफ़ मुड़ गई । ये कौन बोला --रावण कहां है --ये तो पुतला है । सभी एक दूसरे को आश्चर्य भरी दॄष्टि से देखने लगे- ये पुतला कहां से बोल रहा है?
"हा ! हा! हा! हा!’ -पुतले से पुन: आवाज़ आई-- मैं पुतला नहीं ,रावण बोल रहा हूँ ,! अरे भीड़ के हिस्सों ! मूढ़ों   तुम लोग क्या समझते हो कि तुम लोग मुझे मार दोगे? वाल्मीकि से लेकर तुलसी तक सभी ने मुझे मारा । क्या मैं मरा?  हर साल तुम ने मुझे मारा । क्या मैं मरा? तुम कहते हो कि मैने ’सीता का अपहरण किया ? क्या मेरे मरने  के बाद सीता का अपहरण बन्द हो गया । क्या तुम्हारे ’बाहुबली’ लोग अब सीता का  ’अपहरण’ नही करते?--उन्हें ’फ़ाइव स्टार’ होटेल में क़ैद नही कर के रखते? मैने छल किया --क्या तुम लोग छल नहीं करते ?
हा हा ! हा! हा!
-----मैं मरता नही  अपितु ज़िन्दा हो जाता हूँ हर साल -----तुम्हारे अन्दर --- लोभ बन कर ,,,,हवस बन कर,,,, , छल बन कर ...अहंकार बन कर ---ईर्ष्या बन कर--परमाणु बम्ब बन कर --हाईड्रोजन बम्ब बन कर ।हर देश में ..हर काल में मैं ज़िन्दा रहा हूँ मैं । कभी---- हर युद्ध में  हर मार काट में --कभी सीरिया में ----कभी लेबनान मे--- । तुम विभीषण’  को पालते हो क्यों कि वह तुम्हे ’सूट’ करता है ----तुमने कभी अपने अन्दर झांक कर नही देखा ---तुम देख  भी नही सकते -तुम देखना चाहते भी नही -तुम्हे मात्र मुझ  पर पत्थर फ़ेकना आता है --कि तुम्हे आसान लगता है --तुम अपने आप पर ’पत्थर नहीं  फ़ेंक सकते----- - मुझे जलाना तुम्हे आसान लगता है -तुम अपने अन्दर का लोभ नहीं जला सकते -मुझे मारना तुम्हे आसान लगता है ---तुम अपने आप का ’अहंकार नही मार सकते । - मेरा अहंकार स्वरूप दिखता है ---।तुम्हे मेरे नाम से नफ़रत है---कोई  अपने बेटे का नाम ’रावण’ नही रखना चाहता ----सब ’राम’ का ही नाम रखना चाहते हैं ---आसाराम---राम रहीम--राम पाल --राम वॄक्ष ---ऐसा ही चलता रहा तो भविष्य में लोग ’राम’ का नाम  भी रखने में 2-बार सोचेंगे  । मैने  तो राम के नाम का सहारा नहीं लिया  -।  रावण एक प्रवॄत्ति है--उसे कोई नही मार सकता--अगर कोई मार सकता है बस--तुम्हारे दिल के अन्दर का ’रामत्व’ ही मुझे मार सकता है --- तुम राम नही ----अपने अन्दर ’रामत्व’ जगाऒ -दया जगाओ--क्षमा जगाओ----करुणा जगाओ--प्यार जगाओ -दान जगाओ--पुण्य जगाओ - मैं खुद ही मर जाऊँगा----

’या ही इज टाकिंग समथिंग नाइस’-- शर्मा जी ने कहा
माथुर साहब ने हुंकारी भरी--’ जब मौत सामने दिखाई देती है तो ज्ञान निकलता है  सर --दैट इज व्हाट एक्ज़ैक्टली ही इज टाकिंग’ सर !
--- माईक से उद्घोषणा हुई --- भाइयो और बहनो ! आप के प्यारे दुलारे चहेते मुख्य अतिथि महोदय अब  हमारे बीच पधार चुके है ---जोरदार तालियों से उनका स्वागत कीजिए। थोड़ी देर में ’रावण वध’ का आयोजन किया जायेगा

सब ने अपने अपने हाथ में पत्थर  उठा  लिए।
अस्तु

-आनन्द.पाठक-

सोमवार, 25 सितंबर 2017

जिन्दगी

जिन्दगी

विवसता में  हाथ  कैसे  मल रही  है जिन्दगी
मनुज से ही मनुजता को छल रही है जिन्दगी
एक  छोटे  से  वतन  के  सत्य  में आभाव में
रास्ते की पटरियों  पर  पल  रही  है जिन्दगी//0//

फूल  है  जिन्दगी  शूल  है  जिन्दगी
भटकने पर  कठिन भूल है जिन्दगी
जो समझते है अपने को उनके लिए
मनुजता का  सही मूल  है  जिन्दगी//१//

छाँव  है  जिन्दगी  धूप  है  जिन्दगी
मधुरता  से  भरा  कूप  है  जिन्दगी
सत्य में सत्य  के साधकों  ने  कहा
ईश का ही तो  प्रतिरूप है जिन्दगी//२//

शान  है  जिन्दगी  मान  है   जिन्दगी
अपनेपन  से  भरी  खान  है जिन्दगी
कितना ऊँचा महल हो भले खण्डहर
जब तलक साथ  में जान है जिन्दगी//३//

प्रेम  का  बीज  बोती  कहीं   जिन्दगी
अपना अस्तित्व  खोती कहीं जिन्दगी
सत्य में अपने लौकिक सुखों के लिए
बैलगाड़ी   में   जोती   कहीं  जिन्दगी//४//

आग की नित तपिस भी सहे जिन्दगी
सर्द   में   बन   पसीना   बहे  जिन्दगी
रात हो या दिवस  कितनी मेहनत पड़े
फिर भी आराम को  न  कहे  जिन्दगी//५//

झंझटों  में  उलझ - सी  गयी  जिन्दगी
कैसे  दोजख  सदृश हो गयी  जिन्दगी
आग  से  खेलते   जो  उदर  के  लिए
रोज  मिलती  उन्हें  भी  नयी जिन्दगी//६//

नित्य   बूटे   कसीदे   गढ़े   जिन्दगी
मन में उल्लास  लेकर बढ़े  जिन्दगी
ज्ञान  सम्पूर्ण  हो  यह  जरूरत नहीं
नौकरी  के  लिए  ही  पढ़े   जिन्दगी//७//

कहीं  कर्तव्य  में  फँस गयी जिन्दगी
कैसे  वक्तव्य  में फँस  गयी जिन्दगी
आजकल की  चकाचौंध  में  दीखने
सत्य  में  भव्य में फँस गयी जिन्दगी//८//

पिस रही जिन्दगी घिस रही जिन्दगी
पीव बनकर कहीं  रिस रही जिन्दगी
अपने कर्तव्य  में  कैसी  उलझी  हुई
दीख  जाती  वही जिस रही जिन्दगी//९//

पल रही जिन्दगी  चल रही  जिन्दगी
अर्थ  के  अर्थ  में  छल रही जिन्दगी
बस नमक  और  रोटी के आभाव में
भूख की आग  में  जल रही जिन्दगी//१०//

आज है क्या पता कल नहीं जिन्दगी
जिन्दगी जिन्दगी  मल नहीं जिन्दगी
सीख ले जो भी  जीना किये कर्म से
मौत हो जाये यह हल नहीं  जिन्दगी//११//

जिन्दगी  का मधुर  गीति है जिन्दगी
आदि से  सृष्टि  की रीति है  जिन्दगी
प्रेम  से  जो  जिए  प्रेम  के  ही लिए
उसको  अनुभूति है प्रीति है जिन्दगी//१२//

सुख - दुखों को भी चखती कहीं जिन्दगी
अपनी किस्मत को लखती कहीं जिन्दगी
अन्तरिक्ष    हो   या   माउण्टएवरेस्ट   हो
हौंसला   उच्च     रखती   कहीं  जिन्दगी//१३//

कहीं   सौरभ  विखेरे  यही  जिन्दगी
काम आ जाये जो बस वही जिन्दगी
न हो पीड़ा किसी को  स्वयं से कभी
स्वयं  ही  कष्ट  सारे   सही  जिन्दगी//१४//

धूप  हो  छाँव  हो  काटती  जिन्दगी
कर्ज का बोझ भी  पाटती  जिन्दगी
भूख से जब भी लाचार हो जाती है
जूंठे   दोने   उठा  चाटती   जिन्दगी//१५//

द्वेष-विद्वेष  भी  कर  रही  जिन्दगी
कैसे अपनों ले ही डर रही जिन्दगी
दीखती ही नहीं  अब सहनशीलता
ऐसे परिप्रेक्ष्य में मर  रही  जिन्दगी//१६//

शब्द से ही  मशीहा  बनी  जिन्दगी
दम्भ  में  पूर्णतः  है  सनी  जिन्दगी
एक छोटा - सा उपकार होता नहीं
बन  गयी आज कैसी धनी जिन्दगी//१७//

मात्र  आहार  ही  कथ्य  है जिन्दगी
प्राणवायु   जहाँ   तथ्य  है  जिन्दगी
आज  के  दौर  में  कोई  होता  नहीं
जीना तो है तभी स्वश्थ्य है जिन्दगी//१८//

आँख में चुभ रही  है  कहीं  जिन्दगी
जाने कितनी अकारण जही जिन्दगी
वैमनश्यता  में आयु  चली  जाती  है
प्रेम का पुष्प  खिलता  नहीं जिन्दगी//१९//

राज  अन्तःकरण  में  लिये   जिन्दगी
कितने उपकार हम पर किये जिन्दगी
ज्ञान की ज्योति  उर में प्रकाशित करे
बाकी कुछ भी नहीं जो दिये जिन्दगी//२०//

मोक्ष पद मिल सके त्याग है जिन्दगी
आवरण   से   ढकी  राग है  जिन्दगी
अपना अस्तित्व खोती समर्पण में जो
वही  जीवन  का  अनुराग है जिन्दगी//२१//

भोगियों  के  लिए  भोग  है  जिन्दगी
कर्म से जो विमुख  रोग  है  जिन्दगी
जीव का  ईश  से  सम्मिलन  दे करा
सत्य  का  सार्थक  योग है  जिन्दगी//२२//

धर्म  है  ही  नहीं   पाप   है   जिन्दगी
लोभियों, लोभ का  जाप  है  जिन्दगी
न  क्षमा  है  दया  है  न  करुणा  ही है
उनका जीवन ही अभिशाप है जिन्दगी//२३//

साधना  के  लिए   पूर्ति   है   जिन्दगी
उर  में  आनन्द  दे  मूर्ति  है   जिन्दगी
अपने पथ से नहीं  जो विमुख हो रहा
कितने संकट  हो  स्फूर्ति  है  जिन्दगी//२४//

तड़पती है  कहीं  बन  विरह जिन्दगी
कर रही  है कहीं  पर  जिरह जिन्दगी
झंझटों से ग्रसित बनके अयहाय - सी
चल रही  है  कहीं  दर गिरह जिन्दगी//२५//

रम में  विक्षिप्त - जैसी  रमी जिन्दगी
भीड़ है  हर  जगह पर जमी जिन्दगी
दीख  जाती  कहीं  खिलखिलाते हुए
ड़बड़बाई  हैं  पलकें  नमी   जिन्दगी//२६//

सुर्ख  जोड़े  में  जाती  कहीं जिन्दगी
काल  स्वर्णिम बनाती  कहीं जिन्दगी
प्रेम  में  अपना   सर्वस्व  देकर  स्वयं
डूबकर  गम  भुलाती  कहीं जिन्दगी//२७//

ले  हथौड़ी  शिला  तोड़ती  जिन्दगी
धार नदियों की भी मोड़ती  जिन्दगी
चन्द लौकिक सुखों के लिए ही सही
पाई - पाई   जुटा   जोड़ती  जिन्दगी//२८//

पग बिना किस तरह घीसती जिन्दगी
अस्पतालों  में  भी  टीसती   जिन्दगी
अपने वश का  कोई  कार्य होता नहीं
क्या  करे  दाँत  ही  पीसती  जिन्दगी//२९//

छूत  है   जिन्दगी   पूत   है   जिन्दगी
है  भविष्य   कहीं   भूत  है   जिन्दगी
रंक,  राजा  बनी  फिरती  इतरती  है
आदि से अन्त तक  सूत  है  जिन्दगी//३०//

बन  रही  जिन्दगी  ठन रही  जिन्दगी
जिन्दगी  के  लिए  धन रही  जिन्दगी
शोक संतप्त  हो  शव  लिए  साथ  में
गाड़ने   हेतु   में    खन  रही जिन्दगी//३१//

कट  रही  जिन्दगी पट  रही जिन्दगी
वेहया   अनवरत   खट रही जिन्दगी
लोभ लालच  तथा मोह से  आवरित
नित्य प्रतिपल सुघर घट रही जिन्दगी//३२//

लथ रही जिन्दगी  पथ  रही  जिन्दगी
कैसे  सम्बन्ध  में  नथ  रही  जिन्दगी
अपना बन जाये  दूजा  गिरे  भड़  में
बस  इसी  भाव  से मथ रही जिन्दगी//३३//

जैसा  ऐनक  हो  वैसा दिखे जिन्दगी
नित्य  वातावरण  से   सिखे जिन्दगी
जो भी कर लेते है  सत्य  की साधना
दूध  का  दूध  पानी   लिखे  जिन्दगी//३४//

ज्ञान  है  और   विज्ञान   है   जिन्दगी
लक्ष्य  भेदे  कठिन  बान  है  जिन्दगी
अपने सम्मोह से  मोहती  जो  जगत
बाँसुरी  की  मधुर   गान  है  जिन्दगी//३५//

स्मरण  हो  रही   विस्मरण  जिन्दगी
हो  रही  नित्यप्रति  संक्षरण जिन्दगी
दृश्य को देखते दिन निकल जाता है
ओढ़ती  मृत्यु  का आवरण  जिन्दगी//३६//

द्वन्द  है  तो  कहीं   फन्द   है  जिन्दगी
कैदखानों    में   भी   बन्द  है  जिन्दगी
जिसको आये कला जीवन जी लेने की
बस  उसी  के  लिए  छन्द  है  जिन्दगी//३७//

बीत  जाये  व्यथा   में  कथा  जिन्दगी
कट न  पाये  कभी  अन्यथा  जिन्दगी
मिल  गयी  है  सुधा पान कर लेने को
तत्व का ज्ञान,  जिसने  मथा  जिन्दगी//३८//

झेलती    जिन्दगी   ठेलती   जिन्दगी
मन  मधुप  माधुरी  मेलती   जिन्दगी
भाव,  आभाव  का  जब सरोकार हो
किस  तरह  रोटियाँ  बेलती  जिन्दगी//३९//

सृष्टि कारण  सृजक  अंश है जिन्दगी
तप से  शोधित  हुआ वंश है जिन्दगी
चेतना   रूप   में   संचरित   हो   रहा
दृश्य  होता   नहीं   हंस   है  जिन्दगी//४०//

स्वाद  का  स्वाद  है  दन्त  है जिन्दगी
प्रीति  सम्बन्ध  में  कन्त   है  जिन्दगी
जो  स्वयं  सिद्ध  आनन्द  के  रूप  में
आदि  से  सम्मिलन  अन्त है जिन्दगी//४१//

स्वप्न  कितने  संजोकर  रखे  जिन्दगी
अनगिनत  घाव  उर पर चखे जिन्दगी
वैसे   संयोग   में  जी    सभी  लेते  हैं
गम नहीं तो क्या जीना सखे! जिन्दगी//४२//

मानता  कोई  समझौता  है  जिन्दगी
मृत्यु उपलक्ष्य में  न्यौता  है  जिन्दगी
भेद  देती  मधुर  जग के सम्बन्ध को
शब्दभेदी      सरौता  है       जिन्दगी//४३//

अन्ततल  में  वशा  देती  भय जिन्दगी
उड़   रही  यान  में  बैठ  गय  जिन्दगी
भोग अतिशय चरम पर पहुँच जाये तो
संवरण  कर  रही  रोग  क्षय   जिन्दगी//४४//

उम्रभर    रेंकती     सेंकती     जिन्दगी
फिर  जले  पर  नमक फेंकती जिन्दगी
पात्र भिक्षा का  कर  में  लिए  दौड़कर
आश    में   रास्ता    रोंकती   जिन्दगी//४५//

काटती  है  निशा  टाट   पर   जिन्दगी
दीखती  मौत  के  घाट   पर   जिन्दगी
धन  के  भण्डार  पर कुण्डली मारकर
बैठती  ठाट  से   खाट   पर   जिन्दगी//४६//

चल  रही  फिर  रही  घात में  जिन्दगी
अंधेरी     घनी    रात      में    जिन्दगी
दीख  पड़ती   बनाते   हुए  आज   भी
बस  हवाई  महल  बात   में   जिन्दगी//४७//

नेह  में   रच   रही   अल्पना   जिन्दगी
खो रही  किस  तरह  कल्पना जिन्दगी
सुख की अनुभूति  पलभर हुई ही नहीं
जीना  क्या  है  भला, जल्पना जिन्दगी//४८//

फेरा  लेकर  बँधी  सात  पर  जिन्दगी
काट  देती  नमक  भात  पर  जिन्दगी
माझी  मझधार  नाव  से  हो   विमुख
लगता   रखी  हुई  पात  पर  जिन्दगी//४९//

सुगमता  की  मधुर  आश है जिन्दगी
जीव का ही  तो  उपवास  है जिन्दगी
आओ प्रतिबद्ध हों बस खुँशी के लिए
द्वेष  का  नाश  अभिलाष  हैै जिन्दगी//५०//

रविवार, 24 सितंबर 2017

एक ग़ज़ल :- ये गुलशन तो सभी का है---

एक ग़ैर रवायती ग़ज़ल :---ये गुलशन तो सभी का है----

ये गुलशन तो सभी का है ,तुम्हारा  है, हमारा है
लगा दे आग कोई  ये नही   हमको गवारा  है

तुम्हारा धरम है झूठा ,अधूरा है ये फिर मज़हब
ज़मीं को ख़ून से रँगने का गर मक़सद तुम्हारा है

यक़ीनन आँख का पानी तेरा अब मर चुका होगा
जलाना घर किसी का क्यूँ तेरा शौक़-ए-नज़ारा है?

सभी  तैयार बैठे हैं   डुबोने को मेरी कश्ती --
भँवर से बच निकलते हैं कि जब आता किनारा है

जो तुम खाते ’यहाँ’ की हो, मगर गाते ’वहाँ’ की हो
समझते हम भी हैं ’साहिब’!कहाँ किस का इशारा है

उठा कर फ़र्श से तुमको ,बिठाते हैं फ़लक पे हम
जो अपनी पे उतर आते ,जमीं पर भी उतारा है

ये मज़लूमों की बस्ती है ,यहाँ पर क़ैद हैं सपने
उठाते हाथ में परचम ,बदल जाता नज़ारा है

मुहब्बत की निशानी छोड़ कर जाना ,अगर जाना
कहाँ फिर लौट कर कोई कभी आता दुबारा है

यही तहज़ीब है मेरी ,यही है तरबियत ’आनन’
कि मेरी जान हाज़िर है किसी ने गर पुकारा है

-आनन्द पाठक-

शब्दार्थ 
तरबियत  =पालन-पोषण

शनिवार, 23 सितंबर 2017

चिड़िया: बस, यूँ ही....

चिड़िया: बस, यूँ ही....: नौकरी, घर, रिश्तों का ट्रैफिक लगा,  ज़िंदगी की ट्रेन छूटी, बस यूँ ही !!! है दिवाली पास, जैसे ही सुना, चरमराई खाट टूटी, बस यूँ ही !!! ड...

शनिवार, 16 सितंबर 2017

Laxmirangam: हिंदी दिवस 2017 विशेष - हमारी राष्ट्रभाषा

Laxmirangam: हिंदी दिवस 2017 विशेष - हमारी राष्ट्रभाषा: हमारी राष्ट्रभाषा. परतंत्रता की सदियों मे स्वतंत्रता आंदोलन में लोगों को एक जुट करने के लिए राष्ट्रभाषा शब्द का शायद प्रथम प्रयोग...

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बुधवार, 13 सितंबर 2017

चिड़िया: पाषाण

चिड़िया: पाषाण: पाषाण सुना है कभी बोलते, पाषाणों को ? देखा है कभी रोते , पाषाणों को ? कठोरता का अभिशाप, झेलते देखा है ? बदलते मौसमों से, जूझते द...

मंगलवार, 12 सितंबर 2017

Laxmirangam: दीपा

Laxmirangam: दीपा: दीपा हर दिन की तरह मुंबई की लोकल ट्रेन खचाखच भरी हुई थी. यात्री भी हमेशा की तरह अंदर बैठे , खड़े थे. गेट के पास कुछ यात्री हेंडल पकड़े ...

Laxmirangam: दीपा

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गुरुवार, 7 सितंबर 2017

Laxmirangam: आस्था : बहता पानी

Laxmirangam: आस्था : बहता पानी: आस्था : बहता पानी                 तैरना सीखने की चाह में,                 वह समुंदर किनारे                  अठखेलियाँ करन...

रविवार, 3 सितंबर 2017

चिड़िया: नुमाइश करिए

चिड़िया: नुमाइश करिए: दोस्ती-प्यार-वफा की, न अब ख्वाहिश करिए ये नुमाइश का जमाना है नुमाइश करिए । अब कहाँ वक्त किसी को जनाब पढ़ने का, इरादा हो भी, खत लिखने का,...

चिड़िया: शब्द

चिड़िया: शब्द:



शब्द

मानव की अनमोल धरोहर
ईश्वर का अनुपम उपहार,
जीवन के खामोश साज पर
सुर संगीत सजाते शब्द !!!

अनजाने भावों से मिलकर
त्वरित मित्रता कर लेते,
और कभी परिचित पीड़ा के
दुश्मन से हो जाते शब्द !!!

चुभते हैं कटार से गहरे
जब कटाक्ष का रूप धरें,
चिंगारी से बढ़ते बढ़ते
अग्निशिखा हो जाते शब्द !!!

कभी भौंकते औ' मिमियाते
कभी गरजते, गुर्राते !
पशु का अंश मनुज में कितना
इसको भी दर्शाते शब्द !!!

रूदन,बिलखना और सिसकना
दृश्यमान होता इनमें,
हँसना, मुस्काना, हरषाना
सब साझा कर जाते शब्द !!!

शब्द जख्म और शब्द दवा,
शब्द युद्ध और शब्द बुद्ध !
शब्दों में वह शक्ति भरी, जो
श्रोता को कर दे निःशब्द !!!

बिन पंखों के पंछी हैं ये
मन-पिंजरे में रहते कैद,
मुक्त हुए तो लौट ना पाएँ
कहाँ-कहाँ उड़ जाते शब्द !!!

शुक्रवार, 1 सितंबर 2017

 ग़ज़ल
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हाथ जब ये बढ़ा तो बढ़ा रह गया ,
जिंदगी भर दुआ मांगता रह गया

सर झुका ये सदा प्रेम से गर कभी
आँख के सामने बस खुदा रह गया

राज़ की बात इक़ दिन बताता तुम्हें
राज़ दिल में छिपा का छिपा रह गया

जिंदगी में कमाया बहुत था मगर
आख़िरी दौर में आज क्या रहा गया

रूठ जाओ अगर तो मना लूं तुम्हें
मान जाना तुम्हारी अदा रह गया

संजय कुमार गिरि
स्वरचित रचना सर्वाधिकार @कोपी राईट
31.8.2017
भोर  भई  रवि  की  किरणें  धरती  कर  आय  गईं  शरना
लाल  सवेर  भई  उठ  जा  कन-सा  अब  देर  नहीं  करना//
गान  करैं  चटका  चहुँओर   सुकाल  भई  सब  धावति  हैं
नीड़न  मा बचवा बचिगै  जिन मां  कर  याद  सतावति  हैं
फूलन  की  कलियॉ  निज  कोष  पसारि सुगंध लुटावति हैं
मानव हों अलि हों  सबको  निज  रूपन  मा  भरमावति हैं//
देख  सुकाल  सुमंगल  है   इनको   निज  नैनन  में  भरना
लाल  सवेर  भई  उठ  जा  कन-सा  अब  देर  नहीं  करना//
खेतन और बगीचन  पै  रजनी  निज  ऑसु  बहाय  गई  है
पोछन को रवि की किरणें द्युति साथ  धरातल  झीन नई है
पोशक दोष विनाशक जो अति कोमल-सी अनुभूति भई है
सागर में सुख के उठि के अब चातक मोतिन खोजि लई है//
दॉत  गिनै  मुख  खोलि  हरी  कर  भारत  भूमि नहीं डरना
लाल  सवेर  भई  उठ  जा  कन-सा  अब  देर  नहीं  करना//
खेतन  मा  मजदूर  किसान  सभी  निज काज सँवार रहे हैं
गाय बँधी बछवा बछिया  निज  भोजन  हेतु  जुहार  रहे  हैं
प्राण-अपान-समान-उदान तथा  नित  व्यान  पुकार  रहे  हैं
जीवन  की गति  है जहँ  लौ  सब  ईश्वर  के उपकार रहे हैं//
आय  सुहावन  पावन  काल   इसे  निज  अंकन  में  भरना
लाल  सवेर  भई  उठ  जा  कन-सा  अब  देर  नहीं   करना//
रैन गई चकवा  चकवी  विलगान  रहे  अब  आय  मिले  हैं
ताप मिटा मन कै सगरौ  तन  से  मन से पुनि जाय खिले हैं
बॉध रहे  अनुराग, विराग  सभी  उर  से  विसराय  किले  हैं
साधक  योग करैं  उठि  कै  तप  से निज हेतु बनाय विले है//
प्राण  सजीवनि  वायु  चली  अब  तौ   सगरौ दुख कै हरना
लाल  सवेर  भई  उठ   जा  कन-सा  अब  देर  नहीं  करना//
यह है जल लो मुख धो  करके अभिनंदन सूरज का कर लो
मिटता मन का सब  ताप उसे  तुम भी अपने उर में भर लो
बल-आयु बढ़े यश भी  बढ़ता  नित ज्ञान मिलै उर में धर लो
अपमान मिले सनमान मिले  सुख की अनुभूति करो उर लो//
जाय  पढ़ो  गुरु  से  तुम   पाठ   प्रणाम  करो  उनके  चरना
लाल  सवेर  भई  उठ  जा   कन-सा   अब  देर  नहीं  करना//

एक गीत : कुंकुम से नित माँग सजाए----

गीत : कुंकुम से नित माँग सजाए---


कुंकुम से नित माँग सजाए ,प्रात: आती कौन ?

प्राची की घूँघट अधखोले
अधरों के दो-पट ज्यों डोले

मलय गन्ध में डूबी डूबी ,तुम सकुचाती कौन?

फूलों के नव गन्ध बिखेरे
अभिमन्त्रित रश्मियां सबेरे

करता कलरव गान विहग जब, तुम शरमाती कौन ?

प्रात समीरण गाता आता
आशाओं की किरण जगाता

छम छम करती उतर रही हो, पलक झुकाती कौन ?

लहरों के दर्पण भी हारे
जब जब तुम ने रूप निहारे

पूछ रहे हैं विकल किनारे ,तुम इठलाती कौन?
कुंकुम से नित माँग सजाए ,प्रात: आती कौन ?

-आनन्द.पाठक-

शुक्रवार, 25 अगस्त 2017

Laxmirangam: संप्रेषण और संवाद

Laxmirangam: संप्रेषण और संवाद:



संप्रेषण और संवाद



आपके कानों में किसी की आवाज सुनाई देती है. शायद कोई प्रचार हो रहा है. पर भाषा आपकी जानी पहचानी नहीं है. इससे आप उसे ...

बुधवार, 16 अगस्त 2017

एक गीत :--------तो क्या हो गया

                एक गीत : --------तो क्या हो गया

तेरी खुशियों में शामिल सभी लोग हैं ,एक मैं ही न शामिल तो क्या हो  गया !

ज़िन्दगी थी गुज़रनी ,गुज़र ही गई
बाक़ी जो भी बची है ,गुज़र जाएगी
दो क़दम साथ देकर चली छोड़ कर
ज़िन्दगी अब न जाने किधर जाएगी 
तेरी यादों का मुझको सहारा बहुत ,एक तू ही न हासिल तो क्या हो गया !

किसको मिलती हैँ खुशियाँ यहाँ उम्र भर
कौन है जो मुहब्बत  में  रोया नहीं 
मंज़िलें भी मिलीं तो उसी को मिलीं
आज तक राह में जो है सोया नहीं
चार दिन की मिली थी मुझे भी ख़ुशी,अब है टूटा हुआ दिल तो क्या हो गया !

एक   ढूँढे,   मिलेंगे    हज़ारों   तुझे
चाहने वालों की  यूँ  कमी तो नहीं
कैसे समझी कि कल मैं बदल जाऊंगा
प्यार मेरा कोई मौसमी तो नहीं
तेरी नज़रों में क़ाबिल सभी लोग हैं ,एक मैं  ही न क़ाबिल तो क्या हो गया

मैने तुझ से कभी कुछ कहा ही नहीं
बात क्या हो गई  तू ख़फ़ा हो गई
बेरुखी ये तिरी और मुँह फेरना 
कुछ बता तो सही क्या ख़ता हो गई

किसकी कश्ती है डूबी नहीं प्यार में,छू सका मैं  न साहिल ,तो क्या हो गया
तेरी खुशियों में शामिल सभी लोग हैं,एक मैं ही न शामिल तो क्या हो  गया

-आनन्द.पाठक-


 

रविवार, 6 अगस्त 2017

Now that you pamper the soulful me

Now that you pamper  the soulful me  
Why won't  you pamper the bodily me 

You are the  he and I am the  she 
Why won't you love the she in me 

I am the nectar that feeds your soul 
Why won't you be my honey bee 

The fire, desires in the ember me 
Why won't you be my inferno spree 

The touch that renaissance the bodily me 

Why won't you be Leonardo da Vinci 

बुधवार, 26 जुलाई 2017

रूप तुम्हारा खिला कंवल है (गीत )

गीत 
रूप तुम्हारा खिला कँवल है 
हिरनी जैसी चाल है
मन्द मन्द मुस्कान तुम्हारी
मुख पर लगा गुलाल है
नैनों से नैना टकराये
दिल में मचा धमाल है
रूप तुम्हारा खिला कँवल है
हिरनी जैसी चाल है

बोल तुम्हारे मिश्री जैसे
मुखड़ा कोमल लाल है
अंग अंग कुंदन सा दमके
लगा सोलवाँ साल है
रूप तुम्हारा खिला कँवल है
हिरनी जैसी चाल है

खूब बरसते बादल आकर
मनवा अब बेहाल है
मधुरस टपके अधरों से जब
लगता बहुत कमाल है
रूप तुम्हारा खिला कँवल है
हिरनी जैसी चाल है
रूप तुम्हारा खिला कँवल है
हिरनी जैसी चाल है


संजय कुमार गिरि
गीत 
रूप तुम्हारा खिला कँवल है 
हिरनी जैसी चाल है
मन्द मन्द मुस्कान तुम्हारी
मुख पर लगा गुलाल है
नैनों से नैना टकराये
दिल में मचा धमाल है
रूप तुम्हारा खिला कँवल है
हिरनी जैसी चाल है

बोल तुम्हारे मिश्री जैसे
मुखड़ा कोमल लाल है
अंग अंग कुंदन सा दमके
लगा सोलवाँ साल है
रूप तुम्हारा खिला कँवल है
हिरनी जैसी चाल है

खूब बरसते बादल आकर
मनवा अब बेहाल है
मधुरस टपके अधरों से जब
लगता बहुत कमाल है
रूप तुम्हारा खिला कँवल है
हिरनी जैसी चाल है
रूप तुम्हारा खिला कँवल है
हिरनी जैसी चाल है


संजय कुमार गिरि

 

सोमवार, 24 जुलाई 2017

Laxmirangam: इस गली में आना छोड़ दो

Laxmirangam: इस गली में आना छोड़ दो:                                 इस गली में आना छोड़ दो                             रे चाँद ,                  हर रात , इस गली...

सोमवार, 17 जुलाई 2017

एक ग़ज़ल : दिल न रोशन हुआ----

एक ग़ज़ल :  दिल न रोशन हुआ-----

दिल न रोशन हुआ ,लौ लगी भी नही, फिर इबादत का ये सिलसिला किस लिए
फिर ये चन्दन ,ये टीका,जबीं पे निशां और  तस्बीह  माला  लिया किस लिए 

सब को मालूम है तेरे घर का पता ,हो कि पण्डित पुजारी ,मुअल्लिम कोई
तू मिला ही नहीं लापता आज तक ,ढूँढने का अलग ही मज़ा  किस लिए   

निकहत-ए-ज़ुल्फ़ जाने कहाँ तक गईं ,लोग आने लगे बदगुमां हो इधर
यार मेरा अभी तक तो आया नहीं ,दिल है राह-ए-वफ़ा में खड़ा  किस लिए       

तिश्नगी सब की होती है इक सा सनम,क्या शज़र ,क्या बसर,क्या है धरती चमन 
प्यास ही जब नहीं बुझ सकी आजतक,फिर ये ज़ुल्फ़ों की काली घटा किस लिए 

बज़्म में सब तुम्हारे रहे आशना .  एक मैं ही रहा  अजनबी की तरह
वक़्त-ए-रुखसत निगाहें क्यों नम हो गईं,फिर वो दस्त-ए-दुआ था उठा किस लिए 

माल-ओ-ज़र ,कुछ अना, कुछ किया कजरवी, जाल तुमने बुना क़ैद भी ख़ुद रहा
फिर रिहाई का क्यूँ अब तलबगार है  ,दाम-ए हिर्स-ओ-हवस था बुना किस लिए   

तुम में ’आनन’ यही बस बुरी बात है ,प्यार से जो मिला तुम उसी के हुए
कुछ भी देखा नहीं ,क्या सही क्या ग़लत, प्यार में फिर ये  धोखा मिला किस लिए  

-आनन्द.पाठक-
08800927181

शब्दार्थ
तस्बीह = जप माला
मुअल्लिम= अध्यापक
निकहत-ए-ज़ुल्फ़= बालों की महक
तिशनगी  = प्यास
वक़्त-ए-रुखसत = जुदाई के समय
माल-ओ-ज़र  = धन सम्पति
अना = अहम
कजरवी =अत्याचार अनीति जुल्म
दाम-ए-हिर्स-ओ-हवस  = लोभ लालच लिप्सा के जाल

दिल्ली से चेन्नई : एक लम्बी ट्रेन यात्रा

दिल्ली से चेन्नई : एक लम्बी ट्रेन यात्रा



4 महीने से जिस दिन का इंतज़ार कर रहा था आख़िरकार वो दिन आ गया। आज रात 10 बजे तमिलनाडु एक्सप्रेस से चेन्नई के लिए प्रस्थान करना था। मम्मी पापा एक दिन पहले ही दिल्ली पहुंच चुके थे। यात्रा की सारी तैयारियां भी लगभग पूरी हो चुकी थी। मैं सुबह समय से ऑफिस  के लिए निकल गया। चूंकि ट्रेन रात में 10:30 बजे थी इसलिए ऑफिस से भी समय से पहले निकलने की कोई जल्दी नहीं थी, पर ये घुम्मकड़ मन कहाँ मानता है और 4 बजे ही ऑफिस से निकल गया। घर आकर तैयारियों का जायजा लिया और बची हुई तैयारियों में लग गया। 7 बजे तक सब कुछ तैयार था, बस अब जाते समय सामान उठाकर निकल जाना था। साढ़े सात बजे तक सब लोग खाना भी खा चुके और 9 बजने का इंतज़ार करने लगे। अभी एक घंटा समय हमारे पास बचा हुआ था और इस एक घंटे में मेरे मन में अच्छे-बुरे खयाल आ रहे थे, अनजान जगह पर जहाँ भाषा की समस्या सबसे ज्यादा परेशान करती है उन जगहों पर पता नहीं क्या क्या समस्या आएगी। इसी उधेड़बुन में कब एक घंटा बीत गया पता नहीं चला।

शनिवार, 15 जुलाई 2017

एक क़ता-----

एक क़ता-----

भला होते मुकम्मल कब यहाँ पे इश्क़ के किस्से
कभी अफ़सोस मत करना कि हस्ती हार जाती है

पढ़ो ’फ़रहाद’ का किस्सा ,यकीं आ जायेगा तुम को
मुहब्बत में कभी ’तेशा’ भी बन कर मौत आती है

जो अफ़साना अधूरा था विसाल-ए-यार का ’आनन’
चलो बाक़ी सुना दो अब कि मुझको नीद आती है

-आनन्द.पाठक-

बुधवार, 12 जुलाई 2017

एक लघु चिन्तन:--देश हित में

एक लघु चिन्तन : --"देश हित में"

जिन्हें घोटाला करना है वो घोटाला करेंगे---जिन्हें लार टपकाना है वो लार टपकायेगें---जिन्हें विरोध करना है वो विरोध करेंगे--- सब अपना अपना काम करेगे ।
ख़ुमार बाराबंकी साहब का एक शे’र है

न हारा है इश्क़ और न दुनिया थकी है
दिया जल रहा है , हवा चल रही  है 

दोनो अपना अपना काम कर रहे हैं} एक कमल है जो कीचड़ में खिलता है और दूसरा कमल का पत्ता है जो सदा पानी के ऊपर रहता है --पानी ठहरता ही नहीं उस पर।
----आजकल होटल -ज़मीन -माल -घोटाला की हवा चल रही है -थक नहीं रही है -- बादल घिर तो रहे हैं मगर बरस नहीं रहे हैं।

-----जो देश की चिन्ता करे वो बुद्धिजीवी
-----जो चिन्ता न करे वो ’सुप्त जीवी’
------जो ;पुरस्कार’  लौटा दे वो ’सेक्युलर’
-------और जो न लौटाए वो ’कम्युनल’  है
----------
मैं कोई पुरस्कार का”जुगाड़’ तो कर नहीं पाया तो लौटाता क्या । नंगा ,नहाता क्या---निचोड़ता क्या

सोचा एक लघु चिन्तन ही कर लें  तब तक -’देश हित मे’ --- दुनिया यह न समझ ले कि  कैसा ’ सुप्त जीवी प्राणी ’ है यह कि ’ताल ठोंक कर’- बहस भी नहीं देखता।
---------
कल ’लालू जी’ ने एक निर्णय लिया --देश हित में
आज ’नीतीश जी’ ने एक निर्णय लिया --देश हित में
भाजपा ने  एक ’चारा’ फ़ेंका --  देश हित में
एक ने  वो ’चारा’ नहीं खाया --देश हित में
दूसरा ’ चारा’  खा ले  शायद --देश हित में
तीसरा ’हाथ’ दिखा दिखा कर थक गया ---देश हित मे

तो क्या? सब का ’देश हित’ अलग अलग है ।
या सबका  ’देश हित’ एक है --कुर्सी-
और जनता ?
----जनता चुप होकर देखती है -----देश हित में
 -ग़ालिब का शेर गुनगुनाती है

बाचीज़ा-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे

गो हाथ में जुम्बिश नहीं आंखों में तो दम है
रहने दो अभी सागर-ओ-मीना मेरे आगे


जनता के लिए कौन है रोता यहां प्यारे
सिद्धान्त" गया भाड़ में , ’सत्ता’ मेरे आगे

आखिरी वाला शेर गालिब ने नहीं कहा था।
 हाँ , अगरऔर ज़िन्दा रहते--तो यही कहते---" कि खुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता "-। ख़ुदा मगफ़िरत करे

जनता तो --बस तमाशा देख रही  है -- आश्वस्त है कि ये सभी ’रहनुमा’ मेरे लिये  चिन्ता कर रहे हैं॥ हमें क्या करना ! -हमे तो 5-साल बाद चिन्ता करना है ।एक सज्जन ने लोकतन्त्र का रहस्य बड़े मनोयोग से सुनाया--"बाबा !जानत हईं ,जईसन जनता चाही वईसन सरकार आई" ---मैंने  परिभाषा पर तो ध्यान नहीं दिया मगर ’बाबा’ के नाम से ज़रूर सजग हो गया--पता नहीं यह कौन वाला  ’बाबा ’ समझ रहा है मुझे।
------
उस ने कहा था---महागठ्बन्धन है ---टूटेगा नहीं---’फ़ेविकोल से भी ज़्यादे का भरोसा है --जब तक ’कुर्सी’ नहीं छूटेगी ----गठबन्धन नही टूटेगा--- सत्ता का शाश्वत  सत्य है---- जनता मगन होई  नाचन लागी --- ’सुशासन’ महराज की जय
भईए ! हम तो ’समाजवाद’ लाने को निकले थे ---सम्पूर्ण क्रान्ति करने निकले थे --।हम पर तो बस  समझिए  ’जयप्रकाश नारायण जी ’ का आशीर्वाद रहा कि फल फूल रहे है जैसे अन्ना हज़ारे जी के चेले फल फूल रहे है जैसे गाँधी जी के चेले फल फूल लिए।
और जनता -कल भी वहीं थी  आज भी वहीं है---]सम्पूर्ण क्रान्ति’ के इन्तिज़ार में---

नई सुबह की नई रोशनी लाने को जो लोग गए थे
अंधियारे  लेकर लौटे हैं जंगलात से घिरे शहर  में

 दुनिया में क्या सम्पूर्ण है, सिवा भगवान के --वो तो मिलने से रहे। बस जो मिला वही लेते आये अपने घर ---बेटी  दमाद  बेटा-बहू भाई ,भतीजा --सब समाजवादी हो गए -चेहरे पे नूर आ गया ।कहते हैं- चिराग पहले घर में ही जलाना चाहिए --। सो मैने घर में ही ’समाजवाद’ का चिराग जला दिया-क्या बुरा किया-। कहने दीजिए लोहिया जी को--ज़िन्दा क़ौमे 5-साल इन्तिज़ार नहीं करती----
 मैने कहा था--भइए----
साथ अगर है छूटेगा ही
’गठ बन्धन’ है टूटेगा ही
कुर्सी पे चाहे जो बैठे
बैठा है  तो लूटेगा  ही 
’हाथ’ भला अब क्या करलेगा
डूबा है तो डूबेगा ही

 ऋषि मुनियों ने कहा ----वत्स आनन्द ! ज़्यादे चिन्ता करने का नी। चिन्ता ,चिता समान है।
कहाँ तक चिन्ता करुँ -झोला लट्काए ।,मेरे जैसे चिन्तक के लिए इतना ही चिन्ता काफी है -- सो अब आज का चिन्तन यहीं तक। कल की चिन्ता कल पर।
अस्तु

-आनन्द पाठक-
08800927181


सोमवार, 10 जुलाई 2017

एक ग़ैर रवायती ग़ज़ल : कहने को कह रहा है------

एक  ग़ैर रवायती ग़ज़ल : कहने को कह रहा है-----

कहने को कह रहा है कि वो बेकसूर है
लेकिन कहीं तो दाल में काला ज़रूर है

लाया "समाजवाद" ग़रीबो  से छीन कर 
बेटी -दमाद ,भाई -भतीजों  पे नूर है

काली कमाई है नही, सब ’दान’ में मिला
मज़लूम का मसीहा है साहिब हुज़ूर है

ऐसा  धुँआ उठा कि कहीं कुछ नहीं दिखे
वो दूध का धुला है -बताता  ज़रूर  है

’कुर्सी ’ दिखी  उसूल सभी  फ़ाख़्ता हुए
ठोकर लगा ईमान किया चूर चूर  है

सत्ता का ये नशा है कि सर चढ़ के बोलता
जिसको भी देखिये वो सर-ए-पुर-ग़रूर है

ये रहनुमा है क़ौम के क़ीमत वसूलते
’आनन’ फ़रेब-ए-रहनुमा पे क्यों सबूर है ?

-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ -
सबूर = सब्र करने वाला/धैर्यवान
सर-ए-पुर ग़रूर =घमंडी/अहंकारी

शनिवार, 8 जुलाई 2017

दो अश’आर


शनिवार, 1 जुलाई 2017

एक ग़ज़ल : मिल जाओ अगर तुम तो-----

एक ग़ज़ल :  मिल जाओ अगर तुम---

मिल जाओ अगर तुम तो ,मिल जाये खुदाई है
क्यों तुम से करूँ परदा , जब दिल में सफ़ाई है

देखा तो नहीं अबतक . लेकिन हो ख़यालों में 
सीरत की तेरी मैने ,  तस्वीर   बनाई   है

लोगों से सुना था कुछ , कुछ जिक्र किताबों में  
कुछ रंग-ए-तसव्वुर से , रंगोली  सजाई  है

माना कि रहा हासिल ,कुछ दर्द ,या चश्म-ए-नम
पर रस्म थी उल्फ़त की,  शिद्दत  से निभाई है

ज़ाहिद ने बहुत रोका ,दिल है कि नहीं माना
बस इश्क़-ए-बुतां ख़ातिर ,इक उम्र  गँवाई  है

ये इश्क़-ए-हक़ीक़ी है ,या इश्क़-ए-मजाज़ी है
दोनो की इबादत में ,गरदन ही झुकाई  है

’आनन’ जो कभी तूने ,दिल खोल दिया होता
ख़ुशबू  तो तेरे दिल के ,अन्दर ही समाई  है

-आनन्द.पाठक-      मो0  088927181
शब्दार्थ:-
सीरत   = चारित्रिक विशेषताएं
रंग-ए-तसव्वुर= कल्पनाओं के रंग से
चस्म-ए-नम   = आँसू भरी आंख , दुखी
शिद्दत से = मनोयोग से
इश्क़-ए-हक़ीकी= आध्यात्मिक/अलौकिक प्रेम
इश्क़-ए-मजाज़ी = सांसारिक प्रेम

शनिवार, 24 जून 2017

चन्द माहिया : क़िस्त 42

चन्द माहिया  :क़िस्त 42

:1:
दो चार क़दम चल कर
छोड़ तो ना दोगे ?
सपना बन कर ,छल कर

:2:
जब तुम ही नहीं हमदम
सांसे  भी कब तक
अब देगी साथ ,सनम !

:3:
जज्बात की सच्चाई
नापोगे कैसे ?
इस दिल की गहराई

:4;
सबसे है रज़ामन्दी
सबसे मिलते हो
बस मुझ पर पाबन्दी

:5:
क्या और तवाफ़ करूँ
इतना ही जाना
मन को भी साफ़ करूँ

-आनन्द.पाठक-
08800927181

शब्दार्थ
तवाफ़ = परिक्रमा करना

गुरुवार, 22 जून 2017

मेरे मन की



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शुक्रिया