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बुधवार, 11 जनवरी 2017

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 19 [मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ात]

उर्दू बह्र पर एक बातचीत " क़िस्त 19 [मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ात]

[[Disclaimer Clause  : वही जो क़िस्त 1 में है]

----- पिछली  क़िस्तों में ,अब तक हम ’मुफ़र्द ज़िहाफ़’ का ज़िक़्र कर चुके है यानी वो एकल ज़िहाफ़ जो सालिम रुक्न पर अकेले और एक बार ही लगता है। मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ -दो या दो से अधिक ज़िहाफ़ - से मिल कर बनता है । कभी कभी इन मिश्रित [मुरक़्क़ब] ज़िहाफ़ का एक संयुक्त नाम भी होता है और कभी कभी नहीं भी होता है । कुछ ऐसे मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ के नाम लिख रहे है जिनके नाम होते है जैसे
1-ख़ब्ल =ख़ब्न +तय्य = मुज़ाहिफ़ नाम होगा- ’मख़्बूल’
2-शकल =ख़ब्न+कफ़्फ़ =मुज़ाहिफ़ नाम होगा-मश्कूल
3-ख़रब =ख़रम+कफ़्फ़ = मुज़ाहिफ़ नाम होगा-अख़रब
4-सरम =सलम+क़ब्ज़ = मुज़ाहिफ़ नाम होगा-असरम
5-सतर =ख़रम+क़ब्ज़ =मुज़ाहिफ़ नाम होगा-असतर
6-ख़ज़ल =इज़्मार+तय्य =मुज़ाहिफ़ नाम होगा-मख्ज़ूल
7-क़सम =असब+अज़ब  =मुज़ाहिफ़ नाम होगा-अक़्सम्
8-जमम =अज़ब+अक़ल =मुज़ाहिफ़ नाम होगा-अजम्
9-नक़्स =असब+कफ़्फ़ =मुज़ाहिफ़ नाम होगा-मन्क़ूस्
10-अक़्स =अज़ब+नक़्स =मुज़ाहिफ़ नाम होगा- अक़स्
11-क़तफ़ =असब+हज़फ़ =मुज़ाहिफ़ नाम होगा-मक़्तूफ़्
12-ख़ल’अ =ख़ब्न+क़त’अ = मुज़ाहिफ़ नाम होगा-मख़्लू’अ
13-नहर =जद्द’अ+कसफ़=मुज़ाहिफ़ नाम होगा-मन्हूर्
14-सलख़ =जब्ब+वक़्फ़ = मुज़ाहिफ़ नाम होगा-मस्लूख़्
15-दरस =क़स्र+बतर = मुज़ाहिफ़ नाम होगा-मद्रूस्
16-हज़फ़ =बतर+हज़्फ़ =मुज़ाहिफ़ नाम होगा-महज़ूफ़्
17-रब’अ =ख़ब्न +बतर = मुज़ाहिफ़ नाम होगा-मरबू’अ
 इसके अलावा ,कुछ मुरक़्क़ब  ज़िहाफ़ ऐसे भी हैं जिनका कोई संयुक्त नाम तो नहीं है पर अमल एक साथ करते हैं ।ऐसे ज़िहाफ़ात की चर्चा हम आगे करेंगे


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1-इसके अलावा भी कभी कभी सालिम रुक्न पर 2-ज़िहाफ़ अलग-अलग लगते है उनका कोई एकल नाम तो नही है परन्तु बहर के नाम में उसे शामिल कर लेते हैं
जिसकी चर्चा बाद में करेंगे
2- ऊपर के लिस्ट में बाईं तरफ़ जो दो अलग अलग ज़िहाफ़ के नाम लिखे हैं उस के बारे में और उनके अमल के तरीक़ों के बारे में पहले ही सविस्तार चर्चा कर चुका हूँ । अब इनका रुक्न पर  "एक साथ" कैसे  अमल करेंगे देखेंगे
3- एक बात साफ़ कर दूं मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ रुक्न पर एक साथ अमल करते हैं ।यह नहीं  कि सालिम रुक्न के किसी टुकड़े पर एक ज़िहाफ़ का अमल करा दिया और मुज़ाहिफ़ रुक्न बरामद हो गई फिर मुज़ाहिफ़ रुक्न पर दूसरे ज़िहाफ़ का अमल कराया। यह उसूलन ग़लत होगा ।मुज़ाहिफ़ पर ज़िहाफ़ नहीं लगाते [ सिवा ’तस्कीन’ और तख़्नीक़’ के जिसकी चर्चा हम बाद में करेंगे।
 4- जब हम मुफ़र्द [एकल] ज़िहाफ़ का ज़िक़्र कर रहे थे तो देखा था कि मुफ़र्द ज़िहाफ़ सालिम रुक्न के किसी ख़ास टुकड़े पर [यानी सबब या वतद पर] ही लगता था और उन्हें श्रेणियों में exclusively  बाँट रखा था जैसे सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर लगने वाले ज़िहाफ़ , वतद-ए-मज्मुआ पर लगने वाले ज़िहाफ़ या सबब-ए-सकील पर लगने वाले ज़िहाफ़ वग़ैरह वग़ैरह ,परन्तु ऐसी श्रेणी विभक्ति ’मुरक़्क़ब ज़िहाफ़’ के case में नहीं किया जा सकता है ।कारण कि मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ दो या दो से ज़्यादे मुख़्त्लिफ़ [विभिन्न] मुफ़र्द ज़िहाफ़ के combination से बने है जिनके असरात सालिम रुक्न के अलग अलग टुकड़ो [वतद या सबब] पर एक साथ होंगे अत: मुरक़्क़्ब ज़िहाफ़ as a singleton  किसी ख़ास टुकड़े से मख़्सूस नही किया जा सकता
5- आप् इतने मुफ़र्द् या मुरक़्क़ब् ज़िहाफ़ात् देख् कर् आप् घबड़ाईए नहीं ।अगर आप शायरी करते हैं तो इतने अर्कान और इतने ज़िहाफ़ात में उमीदन आप शायरी नहीं करते होंगे ।आप चन्द मक़्बूल अर्कान और चन्द मक़्बूल ज़िहाफ़त में ही करते होंगे।अत: आप को न तो सारे अर्कान [19] और न ही सारे ज़िहाफ़ात की ज़रूरत पड़ेगी। मुख़्तलिफ़ शायर के मुख़्तलिफ़ अर्कान पसन्ददीदा होते हैं और उन्हीं से मयार की शायरी करते है : अत: ज़िहाफ़ात ..ये क्या होते हैं ..ये कैसे बनते हैं .ये कैसे अमल करते हैं -- के बारे में जानने में क्या हर्ज है।
एक बात और
शे’र-ओ-सुख़न के दो पहलू हैं --एक तो यही ’अरूज़’ का पहलू  और दूसरा ;तग़्ग़ज़्ज़ुल का पहलू --एक दूसरे के पूरक हैं
अरूज़ के बारे में जानना तो मात्र  शायरी का ’आधा’ भाग ही जानना हुआ --औज़ान का...बहर का ...ज़िहाफ़ का ..तक़्ती’अ का जानना हुआ
शायरी की content ,भाव..कथन..असरात ,,तो मश्क़ से ही आती है यह तो फ़न है हुनर है...ख़ुदा  की ने’मत है
अगर दोनो पहलू एक साथ रहें तो फिर मयार की शायरी होगी ....अमर होगी ...सोने पे सुहागा होगा...सोने में सुगन्ध होगा।
  अब हम एक एक कर इन ज़िहाफ़ के अमल देखते हैं

ज़िहाफ़ ख़ब्ल :-यह ज़िहाफ़ दो ज़िहाफ़ के संयोग से बना है  खब्न + तय्य  और् मुज़ाहिफ़ को ’मख़्बूल्’ कहते है ।और यह् एक् आम् ज़िहाफ़ है ।हम ख़ब्न और तय्य के तरीक़ा-ए-अमल की चर्चा पिछली किस्त में कर चुके है। हम जानते हैं कि मुफ़र्द ज़िहाफ़ ख़ब्न और  मुफ़र्द ज़िहाफ़ तय्य .सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर लगते है जिसमे ज़िहाफ़् ख़ब्न् तो सबब्-ए-ख़फ़ीफ़् के दूसरे मुक़ाम् पर् और् ज़िहाफ़ तय्य सबब-ए-ख़फ़ीफ़ के चौथे मुकाम पर असर डालता है  तो यह मिश्रित ज़िहाफ़ ’ख़ब्ल ’ भी  बज़ाहिर ऐसे रुक्न पर लगेगा जो  -सबब[2]+सबब[2]+वतद [3] से बनता ऐसे 2-ही सालिम रुक्न है  मुस् तफ़् इलुन् [2 2 12] और् मफ़् ऊ लातु [2 2 21]

अब हम इस ज़िहाफ़ का अमल देखते हैं
मुस् तफ़् इलुन् [2 2 12] + ख़ब्ल्   = मु त इलुन् [ 1 1 12] यानी  खब्न् से दूसरे स्थान् पर  मुस् का साकिन् -स्- गिरा दिया और् तय्य् से   चौथे स्थान् का साकिन्-फ़्- गिरा दिया तो बाक़ी बचा ’मु त इलुन् [1 1 12]  जिसे मानूस् रुक्न् ’फ़ इ लतुन् [1 1 12] से बदल् लिया
मफ़् ऊ लातु [ 2 2 2 1 ]+ख़ब्ल्  = म अ लातु [1 1 21 ] यानी ख़ब्न् से दूसरे स्थान् मफ़् का  साकिन् -फ़्- और् तय्य् से चौथे स्थान् पर्  "ऊ’ का ’वाव्’ गिरा दिया तो बाक़ी बचा म ’अ [एन् ब हरकत्] लातु [ 1 1 2 1] जिसे मानूस् बहर् -फ़ इ लातु- से बदल् लिया
 जब् बहर रजज़ और बहर मुक़्तज़िब की चर्चा करेंगे तो वहाँ भी इन ज़िहाफ़ की चर्चा करेंगे कि कैसे ये ज़िहाफ़ बहर की रंगारंगी में योगदान करते हैं

 ज़िहाफ़् शकल् : यह् ज़िहाफ़् दो ज़िहाफ़् के संयोग् से बना है ख़ब्न् और् कफ़् से। और् मुज़ाहिफ़् को -मश्कूल् -कहते हैं ।और यह एक आम ज़िहाफ़ है ।हम ख़ब्न और कफ़् के तरीक़ा-ए-अमल की चर्चा पिछली किस्त में कर चुके है।ज़िहाफ़ खब्न् , सबब्-ए-ख़फ़ीफ़् के दूसरे मुक़ाम पर अमल करता है जब कि ज़िहाफ़ कफ़ सबब-ए-ख़फ़ीफ़ के ’सातवें ’ मक़ाम पर अमल करता है }बज़ाहिर यह उन्ही रुक्न में संभव है जो -सबब[2] +वतद[3]+सबब[2] से बनता है और ऐसे रुक्न 2 है जैसे ’फ़ा इला तुन्’ और मुस् तफ़्’अ इलुन् [ मुस तफ़् इलुन् की मुन्फ़सिल् शकल्] जिसमे ज़िहाफ़् खब्न् और् कफ़् लग् सकता है
 फ़ा इला तुन् [2 12 2] + शकल्  = फ़ इला तु [1 12 1] यानी  ज़िहाफ़् ख़ब्न् के अमल् से फ़ा [सबब्-ए-ख़फ़ीफ़् का अलिफ़्] और् ज़िहाफ़् कफ़् की अमल् से सातवें मुक़ाम पर् सबब्-ए-ख़फ़ीफ़् का -न्- को गिरा दिया ,बाक़ी बचा -फ़् इला तु [ 1 12 1]
मुस् तफ़्’अ लुन् [ 2 21 2] +शकल् = मु तफ़्’अ लु [ 1 21 1] यानी ज़िहाफ़् ख़ब्न् से मुस् का -स्-[जो दूसरे मुक़ाम् पर् है  और् ज़िहाफ़् कफ़् लुन् का -न्- [जो सातवें मुक़ाम् पर् है] गिरा दिया तो बाक़ी बचा  मु तफ़्’अ लु [ 121 1] जिसे मफ़ाइलु [12 11] [एन् -ब हरकत्] दे बदल लिया

ज़िहाफ़ ख़रब : यह ज़िहाफ़ दो ज़िहाफ़ -ख़रम+कफ़्फ़ के संयोग से बना है -और मुज़ाहिफ़ को ’अख़रब’ कहते है हम जानते हैं कि ’ख़रम’  वतद [ वतद-ए-मज्मुआ ] पर लगता है और इस का काम है वतद के सर को क़लम करना यानी गिराना और ’कफ़’ का काम है सातवें मक़ाम पर जो सबब-ए-ख़फ़ीफ़ का साकिन है गिराना । और यह तभी मुमकिन है जब रुक्न -वतद [3] +सबब[2]- सबब[2] से बना हो । और 8-सालिम रुक्न में से मात्र 1-रुक्न ही ऐसा है जिसमे यह निज़ाम पाया जाता है
और वह  है----मुफ़ा ई लुन [12 2 2] =वतद+सबब+सबब
मुफ़ा ई लुन [12 2 2 + खरब   =  फ़ा ई लु [2 2 1] यानी मुफ़ा जो वतद-ए-मज्मुआ है का सर ’मु’ [मीम] का ख़रम कर दिया  तो बचा ’फ़ा’ और सातवें  मुक़ाम पर सबब-ए-ख़फ़ीफ़ का  नून साकिन है गिरा दिया तो बाक़ी बचा ई लु [यानी लाम  मय हरकत]
तो हासिल हुआ ’फ़ा ई लु [2 2 1] इसे रुक्न मफ़ऊलु [2 2 1] से  बदल लिया यह् ज़िहाफ़् शे’र् के सदर् और् इब्तिदा के मुक़ाम् पर लगते हैं

ज़िहाफ़ सरम : यह भी एक मुरक़्क़ब [मिश्रित] ज़िहाफ़ है जो दो मुफ़र्द ज़िहाफ़ [एकल] सलम+ क़ब्ज़ से मिल कर बना है ।मुज़ाहिफ़ को ’असरम’कहते हैं। [ वतद मज्मुआ] के सर-ए-वतद को गिराना यानी ख़रम करना ही ’फ़ऊलुन; के केस में सलम कहलाता है और सबब-ए-खफ़ीफ़ के पाँचवें मुक़ाम से हर्फ़-ए-साकिन को गिराना क़ब्ज़ कहलाता । यह स्थिति तभी बन सकती है जब रुक्न में -वतद-ए-मज्मुआ[3]+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़ [2] से बना है  और 8-सालिम रुक्न में से 1-ही रुक्न ऐसा है जिसमें यह निज़ाम है और वह है ’फ़ऊलुन’
फ़ऊलुन् [12 2 ]+ सरम् = ऊ लु [21] यानी ख़रम् के अमल् से -मफ़ा [12] वतद् मज्नुआ का ’फ़े’ और् क़ब्ज़् के अमल् से पाँचवें मुक़ाम् पर् का साकिन् -नून्-[न्] गिरा दिया तो बाक़ी बचा -ऊलु [लाम् मय् हरकत्] जिसे रुक्न् -फ़’अ लु [लाम् मय् हरकत्] से बदल् लिया । यह् ज़िहाफ़् शे’र् के सदर् और् इब्तिदा के मुक़ाम् पर लगते हैं

इस सिलसिले के  बाक़ी ज़िहाफ़ात की चर्चा  अगली क़िस्त में करेंगे....

--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

अभी नस्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....


[नोट् :- पिछले अक़सात के आलेख आप मेरे ब्लाग पर  भी देख सकते हैं 

www.urdu-se-hindi.blogspot.com
or
www.urdusehindi.blogspot.com
-आनन्द.पाठक-
0880092 7181

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बृहस्पतिवार (12-01-2017) को "अफ़साने और भी हैं" (चर्चा अंक-2579) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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