एक क़ता
खुशियाँ चली गई हैं मुझे कब की छोड़ कर
अब तुम भी साथ छोड़ने को कह रहे हो ,ख़ैर !
दो चार गाम चल के , गए रास्ता बदल
जीने को लोग जीते हैं अपनों के भी बग़ैर
रखना दुआ में याद कभी इस हक़ीर को
जो आशना तुम्हारा जिसे कह रही हो ग़ैर
जिस मोड़ पर मिली थी ,वहीं मुन्तज़िर हूँ मै
काबा यहीं है मेरा यहीं आस्तान-ए-दैर
-आनन्द पाठक-
08800927181
खुशियाँ चली गई हैं मुझे कब की छोड़ कर
अब तुम भी साथ छोड़ने को कह रहे हो ,ख़ैर !
दो चार गाम चल के , गए रास्ता बदल
जीने को लोग जीते हैं अपनों के भी बग़ैर
रखना दुआ में याद कभी इस हक़ीर को
जो आशना तुम्हारा जिसे कह रही हो ग़ैर
जिस मोड़ पर मिली थी ,वहीं मुन्तज़िर हूँ मै
काबा यहीं है मेरा यहीं आस्तान-ए-दैर
-आनन्द पाठक-
08800927181
शब्दार्थ
दो-चार गाम = दो चार क़दम
हक़ीर = तुच्छ [कभी कभी लोग स्वयं को अति विनम्रता से भी कहते हैं]
आशना = चाहने वाला
मुन्तज़िर =प्रतीक्षारत
आस्तान-ए-दैर = तुम्हारे दहलीज का पत्थर
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