कोई गूंगा किसी बहरे अंधे को—पथिकअनजाना-575
वीं पोस्ट
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समझे नही क्यों ध्याये अपने होश धन वक्त गवायें चढ नई रीति
विक्रेता भले ही बदले शांति तो हर युग में हर वर्ष बिकती आई हैं
रहते अशांत खुद ग्राहकों की खोज में वे दब जाते नित नये ढौग
मानों गिनते गटर किनारे हो खडे पहुचे कितने भीतर वे भोले भाले
न देखा शांत कई चेहरा गम सबको किसी न किसी
अभाव का हैं
बेचने वाला भी अशांत खरीदने वाला भी बिकने वाला भी अशांत
लगता मुझे मानो कोई गूंगा किसी बहरे अंधे को राह बता रहा हैं
पथिक अनजाना
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (08-04-2014) को "सबसे है ज्यादा मोहब्बत" (चर्चा मंच-1576) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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श्रीराम नवमी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'