गतांक से आगे....
[.......पिछली कड़ी में आप ने पढ़ा कि कैसे ’निराला’ जी ने हिन्दू बोर्डिंग हाऊस इलाहाबाद के प्रांगण मे होने वाले कवि सम्मेलन का सभापति बनने का ’क्षेम’ जी का अनुरोध अस्वीकार कर दिया था। अब क्षेम जी के बारे में आगे पढ़िए.... आनन्द.पाठक]
संस्मरण : मेरे स्मृति के पात्र : श्रीपाल सिंह ’क्षेम’ भाग 2
----[स्व0] रमेश चन्द्र पाठक
........उन दिनों क्षेम जी से मेरी इतनी पटा करती थी कि कभी कभी वह अपने दिल का दर्द भी कहा करते थे ।उन्हें इस बात का बड़ा दु;ख था कि वे अपने पिता का अन्तिम दर्शन नहीं कर पाए।हुआ यूँ कि क्षेम जी उन दिनों कोई परीक्षा दे रहे थे।घर वालों ने सोचा कि निधन का समाचार देने से परीक्षा कुप्रभावित हो जायेगी।अत: उन्हें सूचित करना आवश्यक नहीं समझा ।परीक्षा समाप्त होने पर जब क्षेम जी घर गए तो उन्हें यह दुखद समाचार सुनने को मिला। वह बताते थे कि परीक्षा तो अगले साल भी दी जा सकती थी पर पिता जी का अन्तिम दर्शन तो अगले साल नहीं हो सकता था।
पिता जी के अन्तिम दर्शन न कर पाने का आघात तो लगा ही था साथ ही साथ आर्थिक आघात भी लगा। घर से मिलने वाला पढ़ाई का खर्च आर्थिक हिचकोले खाने लगा। पैसा कभी कभी समय पर नहीं आ पाता था ,कभी कभी तो बिल्कुल ही नहीं आ पाता था।लगता था कि मात्र रस्म अदायगी ही की जा रही है।गनीमत यह थी कि उन दिनों राजा साहब जौनपुर के यहाँ से मिलने वाली एक छात्रवृति इन्हें भी मिल गई । वही छात्रवृति, इनकी गाड़ी को खींचे चली जा रही थी। क्षेम जी कोई शाहखर्च वाले आदमी नहीं थे और न ही कंजूस थे। हाँ ,उन्हें कुशल मितव्ययी अवश्य कहा जा सकता था।फिर भी, कभी कभी कुछ न कुछ कमी हो ही जाया करती थी जो इधर-उधर की आय से पूरी हो जाया करती थी । इधर-उधर से मेरा तात्पर्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली कविताओं से मानदेय के रूप में मिलने वाले राशि से है। उन दिनों, इलाहाबाद पत्र-पत्रिकाओं का गढ़ था। क्षेम जी मिलनसार व्यक्ति तो थे ही ,अनेक सम्पादकों से उनका गहरा परिचय भी था। कविताएं भी उच्च कोटि की करते थे। उच्च कोटि की कवितायेँ होने के कारण मानदेय पाने में उन्हें कोई परेशानी नहीं होती थी।क्षेम जी की ख्याति उन दिनों बढ़ती ही जा रही थी । इलाहाबाद से बाहर उन्हें काव्य-पाठ का आमन्त्रण मिलता रहता था। उन दिनों काव्य-पाठ के लिए कोई मानदेय नहीं मिलता था ।हाँ ,आने-जाने का मार्ग-व्यय अवश्य मिल जाया करता था ,जिसमें से कुछ न कुछ बच ही जाया करता था। पर कितना बचता था ,निश्चित नहीं था।एक बार की एक मनोरंजक घटना याद आ रही है ,जब वह भी नहीं मिला।
एक बार ,कानपुर में एक वॄहत कवि-सम्मेलन का आयोजन था।पूर्वांचल के कवियों को ले आने का भार -कोई श्री कृष्ण बाबू थे -उन पर था।उनका कोटा 12-कवियों का था।उन्होने क्षेम जी को 3-कवियों का कोटा दिया । उन 3-कवियों में ,एक तो क्षेम जी स्वयं थे। बाक़ी दो में से उन्होने एक मुझे ,यानी रमेश चन्द्र पाठक और दूसरे कवि श्री अद्भुत नाथ मिश्र को लिया।हम दोनो हास्य रस के कवि थे।निश्चित समय पर ,हम तीनों बड़ी लाईन के स्टेशन पर पहुँच गए। श्री कृष्ण बाबू के साथ हो लिए जिनके साथ 9-आदमी और भी थे। डब्बे में हम सभी को एक साथ एक जगह नहीं मिली ,फलत: हम 6-कवि एक साथ एक जगह बैठे और बाक़ी 6-कवि उसी डब्बे में पीछे कहीं अन्य जगह पर बैठे।हम लोगों के साथ हिन्दी के प्रसिद्ध कवि बाबा नागार्जुन भी बैठे थे। थोड़ी देर बाद टी0टी0 महोदय आये और टिकट माँगा।श्री कॄष्ण बाबू ने 3-टिकट दिखा दिए और शेष के लिए 50-50 का कोड वर्ड बोला। टी0टी0 लोगों की भाषा में 50-50 का मतलब होता है कि जितना रेल का किराया बनता है उसका 50% आप नगद ले लें और अपने पास रख लें।टी0टी0 महोदय की स्वीकृति मिलने पर श्री कृष्ण बाबू उनका हिस्सा दे ही रहे थे कि पास में बैठे बाबा नागार्जुन बीच में बोल उठे कि कई महाकवि उधर पीछे भी बैठे है।टी0टी0 महोदय ने श्री कृष्ण बाबू की ओर देखा। श्री कॄष्ण बाबू ने अपनी क्षेंप मिटाते हुए कहा-उन लोगों को मैने अपने साथ नहीं बुलाया है मगर जब ये लोग बिना बुलाए ही मेरे साथ हो लिए हैं तो उनका भी 50-50 कर दे रहा हूँ। किसी बड़े स्टेशन पर उक्त टी0टी0 साहब की ड्यूटी बदल गई ।पुराने वाले टी0टी0 ने नए वाले टी0 टी0 से परिचय कराते हुए कहा कि कानपुर स्टेशन पर आप इनसे मिल लीजिएगा।
कानपुर स्टेशन पहुँच कर हम लोग उस नए वाले टी0टी0 से भेंट की और उन्होने निकास गेट पर खड़े टी0टी0 महोदय से कोड वर्ड में जाने क्या बात की कि हम सब लोग बाहर आ गए।
कानपुर में 2-दिन रुकना हुआ जिसका सारा प्रबन्ध उन लोगों ने किया जो अपने आवास पर काव्य-गोष्ठियाँ आयोजित किया करते थे। वहीं मैने आज के प्रसिद्ध गीतकार कवि श्री गोपाल दास ’नीरज’ और उस युग के प्रसिद्ध कवि बलबीर सिंह ’रंग’ से पहली बार मुलाकात हुई थी। फिर बाद में कभी न हो सकी।
कानपुर से वापस भी हम सब उसी ’फ़ार्मूले’ से आए। इलाहाबाद स्टेशन से छात्रावास तक इक्के का किराया ,श्री कृष्ण बाबू ने ,क्षेम जी को दे दिया था । मेरा अनुमान है कि उसमें से क्षेम जी को कुछ भी नहीं बचा होगा ।
एक दिन की बात है । शाम का समय था कुछ बूँदा बाँदी हो रही थी। छात्रावास से बाहर जाने का वातावरण नहीं था।अत: क्षेम जी के कमरे के बाहर ही मण्डली जम गई।बरसाती हवा भी बह रही थी।सभी हल्के-फ़ुल्के मूड में थे।क्षेम जी ने कहा 4-5 तो हमीं लोग हैं और इस छात्रावास में 5-6 और भी अच्छे कवि हैं। अन्य छात्रावास के कवियों को मिला कर 30-32 कवि हो जाते हैं।इतने लोग जब हिन्दी काव्याकाश में उदित होंगे तो आकाश चमक उठेगा।इस पर मेरे बगल में बैठे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने कहा कि ऐसा नहीं होगा।यहाँ से जाने के बाद कितनों की काव्य-तरणी हिचकोले खा खा कर डूब जायेगी। केवल 1-2 की ही किनारे पँहुचेगी।बात जब आगे बढ़ी तो क्षेम जी ने पूछना शुरु किया कि यहाँ से जाने के बाद कौन क्या क्या करेगा? सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने कहा कि मैं तो कविता की डगर
पर चलता ज़रूर रहूँगा पर पेट-पूजा के लिए कोई नियमित और ठोस आजीविका ढूँढनी पड़ेगी। जब राजा राम मिश्र जी से यही प्रश्न किया गया तो उन्होने कहा कि मेरी भारी भरकम काया देखिए ।यह काव्य-पाठों से नहीं भरेगी और मुझे इस के लिए पूछता ही कौन है? मै तो सरकारी नौकरी करूँगा। जब यही प्रश्न अद्भुत नाथ मिश्रा जी से पूछा गया तो उनका उत्तर था कि आप लोगों को तो पता ही है कि इस समय मैं सी0ओ0डी0 [सेन्ट्रल आर्डिनेन्स डिपो] में कार्यरत हूँ ,वहाँ से हटने या हटाए जाने पर ही कुछ सोचूँगा। जब मुझसे पूछा गया तो मैने कहा कि मैं तो पुस्तक विक्रेता या प्रकाशक बनूँगा और आप की कविता संग्रहों को मैं ही प्रकाशित करूँगा।इस पर क्षेम जी ने कहा ठीक ही तो है कि मुझे कोई प्रकाशक नहीं ढूंढना पड़ेगा।आजकल कविताओं के प्रकाशक मिलते ही कहाँ हैं ।फिर मैने कहा -आप ने हम सबका तो पूछ लिया परन्तु आप ने अपना नहीं बताया ।इस पर क्षेम जी ने कहा मैं कविता की राह तो नहीं छोड़ूगा पर ठोस व सुनिश्चित आय व आजीविका के लिए अध्यापक बनना चाहूँगा। पर मैं इसे भाग्य की विडम्बना ही कहूँगा कि जो आदमी उनकी [क्षेम जी की] रचनाओं का प्रकाशक बनना चाह्ता था आज उसके पास कवि [क्षेम जी] की कृतियों की एक प्रति भी नहीं है।
आगे चल कर वही बातें सत्य साबित हुई। श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्रिका ’दिनमान’ के सम्पादक बने।श्री राजाराम जी उत्तरप्रदेश सरकार में शिक्षा विभाग में अधिकारी बने।श्री अद्भुत नाथ मिश्रा जी होम्योपैथिक डाक्टर बने और मैं वकील बना।श्री क्षेम जी माहाविद्यालय में प्रवक्ता बने।कविता की डगर पर सर्वेश्वर दयाल्ल सक्सेना जी ही कुछ चले । मैं भी कुछ चला पर मौन होकर।परन्तु सही ढंग से क्षेम जी ही चले -कृत संकल्प हो कर चलते रहे।
चलते चलाते एक और बात की चर्चा कर देना आवश्यक समझता हूँ । जौनपुर के प्रसिद्ध टी0डी0 कालेज [तिलकधारी सिंह कालेज] में इतिहास-प्रवक्ता की रिक्ति विज्ञापित हुई। हवा मैं तैरती हुई कुछ अफ़वाहों के कारण मैं प्रार्थना-पत्र देने का इच्छुक नहीं था ,पर क्षेम जी के यह कहने पर कि अफ़वाहें झूठी हैं ,ऐसा कुछ नही है । क्षेम जी के आग्रह की इस पृष्ठ भूमि में कदाचित यह भावना रही हो कि नियुक्ति हो जाने पर जन्म भर के लिए साथ हो जायेगा ।मैने प्रार्थना पत्र दे दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा दिए गए प्राप्तांक भी अच्छे थे । मेरे साथ जितने भी लोग साक्षात्कार के लिए बुलाए गए थे और साक्षात्कार में शामिल हुए थे उन सबमें मेरा पलड़ा भारी था।साक्षात्कार समिति के कई सदस्य मेरे पक्षधर थे। श्री हृदय नारायण जी प्रधानाचार्य महोदय श्री क्षेम जी के अत्यन्त निकट के व्यक्ति थे फिर भी मुझे सफ़लता नहीं मिली। मेरी जगह ,वाराणसी के उदयप्रताप कालेज के प्रवक्ता श्री लौटू सिंह गौतम के सुपुत्र जी का चयन हो गया। जिन अफ़वाहों को क्षेम जी ने निराधार कहा था वो निराधार न होकर सही साबित हुआ। क्षेम जी बड़े दुखी हुए।उनके द्वारा बुना गया भविष्य का ताना-बाना टूट गया।उनको मैने समझाया कि यह तो मेरा ही दुर्भाग्य था कि सपने सत्य में न ढले। दुखों को आत्मसात करते हुए भारी मन से क्षेम जी ने अपने आवास से विदा किया।
आजीविकाऒं के आयाम विभिन्न होने के कारण भौगोलिक दूरियाँ बढ़ गईं।धीरे धीरे पत्रों का आना-जाना बन्द हुआ।संवाद हीनता बढ़ने लगी। अपनी ओर से संवाद हीनता का दोषी मैं स्वयं था। वकालत व्यवसाय में व्यस्तता भी एक कारण था।जहाँ तक मुझे याद है कि उनका अन्तिम पत्र उनकी पहली पत्नी की मृत्यु के कुछ दिनों बाद आया था जिसमें उनका लिखा एक वाक्य आज भी मुझे विशेष रूप से उद्वेलित कर रहा है । उन्होने लिखा था कि पत्र उसी चारपाई पर बैठ कर लिख रहा हूँ और बिस्तर भी वही है।
क्षेम जी ! मेरी भी पत्नी का देहान्त हो चुका है ,पर मैं किसे पत्र लिखूँ । आप तो चले गए । मैं लिखूँ भी तो क्या लिखूँ !पत्र पढ़ने वाला और पढ़ कर व्यथा और वेदना समझने वाले आप तो अब इस संसार में हैं नहीं । अपनी वेदना अपनी कविता के एक पंक्ति में इस प्रकार व्यक्त किया है-----
इशारे कहीं से चले आ रहे हैं
सदन छोड़ना है ,समय आ रहा है **
आजकल मेरी स्थिति इस प्रकार से हो गई है जिसे हिन्दी के एक कवि ने इस प्रकार व्यक्त किया है
प्रवाहित साँस जीता-जागता शव हूँ
इन काव्य पंक्तियों के साथ मैं कवि श्रीपाल सिंह ’क्षेम’ जी को श्रद्धांजलि के रूप में यह लेख समाप्त करते हुए ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि कवि की आत्मा को शान्ति प्रदान करें।
[नोट ** पिता जी [श्री रमेश चन्द्र पाठक ] की भी मृत्य दिनांक 09-10-2015 को हो गई
यह आलेख यहाँ भी पढ़ा जा सकता है
प्रस्तुतकर्ता
-आनन्द.पाठक-
09413395592
[.......पिछली कड़ी में आप ने पढ़ा कि कैसे ’निराला’ जी ने हिन्दू बोर्डिंग हाऊस इलाहाबाद के प्रांगण मे होने वाले कवि सम्मेलन का सभापति बनने का ’क्षेम’ जी का अनुरोध अस्वीकार कर दिया था। अब क्षेम जी के बारे में आगे पढ़िए.... आनन्द.पाठक]
संस्मरण : मेरे स्मृति के पात्र : श्रीपाल सिंह ’क्षेम’ भाग 2
----[स्व0] रमेश चन्द्र पाठक
........उन दिनों क्षेम जी से मेरी इतनी पटा करती थी कि कभी कभी वह अपने दिल का दर्द भी कहा करते थे ।उन्हें इस बात का बड़ा दु;ख था कि वे अपने पिता का अन्तिम दर्शन नहीं कर पाए।हुआ यूँ कि क्षेम जी उन दिनों कोई परीक्षा दे रहे थे।घर वालों ने सोचा कि निधन का समाचार देने से परीक्षा कुप्रभावित हो जायेगी।अत: उन्हें सूचित करना आवश्यक नहीं समझा ।परीक्षा समाप्त होने पर जब क्षेम जी घर गए तो उन्हें यह दुखद समाचार सुनने को मिला। वह बताते थे कि परीक्षा तो अगले साल भी दी जा सकती थी पर पिता जी का अन्तिम दर्शन तो अगले साल नहीं हो सकता था।
पिता जी के अन्तिम दर्शन न कर पाने का आघात तो लगा ही था साथ ही साथ आर्थिक आघात भी लगा। घर से मिलने वाला पढ़ाई का खर्च आर्थिक हिचकोले खाने लगा। पैसा कभी कभी समय पर नहीं आ पाता था ,कभी कभी तो बिल्कुल ही नहीं आ पाता था।लगता था कि मात्र रस्म अदायगी ही की जा रही है।गनीमत यह थी कि उन दिनों राजा साहब जौनपुर के यहाँ से मिलने वाली एक छात्रवृति इन्हें भी मिल गई । वही छात्रवृति, इनकी गाड़ी को खींचे चली जा रही थी। क्षेम जी कोई शाहखर्च वाले आदमी नहीं थे और न ही कंजूस थे। हाँ ,उन्हें कुशल मितव्ययी अवश्य कहा जा सकता था।फिर भी, कभी कभी कुछ न कुछ कमी हो ही जाया करती थी जो इधर-उधर की आय से पूरी हो जाया करती थी । इधर-उधर से मेरा तात्पर्य पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली कविताओं से मानदेय के रूप में मिलने वाले राशि से है। उन दिनों, इलाहाबाद पत्र-पत्रिकाओं का गढ़ था। क्षेम जी मिलनसार व्यक्ति तो थे ही ,अनेक सम्पादकों से उनका गहरा परिचय भी था। कविताएं भी उच्च कोटि की करते थे। उच्च कोटि की कवितायेँ होने के कारण मानदेय पाने में उन्हें कोई परेशानी नहीं होती थी।क्षेम जी की ख्याति उन दिनों बढ़ती ही जा रही थी । इलाहाबाद से बाहर उन्हें काव्य-पाठ का आमन्त्रण मिलता रहता था। उन दिनों काव्य-पाठ के लिए कोई मानदेय नहीं मिलता था ।हाँ ,आने-जाने का मार्ग-व्यय अवश्य मिल जाया करता था ,जिसमें से कुछ न कुछ बच ही जाया करता था। पर कितना बचता था ,निश्चित नहीं था।एक बार की एक मनोरंजक घटना याद आ रही है ,जब वह भी नहीं मिला।
एक बार ,कानपुर में एक वॄहत कवि-सम्मेलन का आयोजन था।पूर्वांचल के कवियों को ले आने का भार -कोई श्री कृष्ण बाबू थे -उन पर था।उनका कोटा 12-कवियों का था।उन्होने क्षेम जी को 3-कवियों का कोटा दिया । उन 3-कवियों में ,एक तो क्षेम जी स्वयं थे। बाक़ी दो में से उन्होने एक मुझे ,यानी रमेश चन्द्र पाठक और दूसरे कवि श्री अद्भुत नाथ मिश्र को लिया।हम दोनो हास्य रस के कवि थे।निश्चित समय पर ,हम तीनों बड़ी लाईन के स्टेशन पर पहुँच गए। श्री कृष्ण बाबू के साथ हो लिए जिनके साथ 9-आदमी और भी थे। डब्बे में हम सभी को एक साथ एक जगह नहीं मिली ,फलत: हम 6-कवि एक साथ एक जगह बैठे और बाक़ी 6-कवि उसी डब्बे में पीछे कहीं अन्य जगह पर बैठे।हम लोगों के साथ हिन्दी के प्रसिद्ध कवि बाबा नागार्जुन भी बैठे थे। थोड़ी देर बाद टी0टी0 महोदय आये और टिकट माँगा।श्री कॄष्ण बाबू ने 3-टिकट दिखा दिए और शेष के लिए 50-50 का कोड वर्ड बोला। टी0टी0 लोगों की भाषा में 50-50 का मतलब होता है कि जितना रेल का किराया बनता है उसका 50% आप नगद ले लें और अपने पास रख लें।टी0टी0 महोदय की स्वीकृति मिलने पर श्री कृष्ण बाबू उनका हिस्सा दे ही रहे थे कि पास में बैठे बाबा नागार्जुन बीच में बोल उठे कि कई महाकवि उधर पीछे भी बैठे है।टी0टी0 महोदय ने श्री कृष्ण बाबू की ओर देखा। श्री कॄष्ण बाबू ने अपनी क्षेंप मिटाते हुए कहा-उन लोगों को मैने अपने साथ नहीं बुलाया है मगर जब ये लोग बिना बुलाए ही मेरे साथ हो लिए हैं तो उनका भी 50-50 कर दे रहा हूँ। किसी बड़े स्टेशन पर उक्त टी0टी0 साहब की ड्यूटी बदल गई ।पुराने वाले टी0टी0 ने नए वाले टी0 टी0 से परिचय कराते हुए कहा कि कानपुर स्टेशन पर आप इनसे मिल लीजिएगा।
कानपुर स्टेशन पहुँच कर हम लोग उस नए वाले टी0टी0 से भेंट की और उन्होने निकास गेट पर खड़े टी0टी0 महोदय से कोड वर्ड में जाने क्या बात की कि हम सब लोग बाहर आ गए।
कानपुर में 2-दिन रुकना हुआ जिसका सारा प्रबन्ध उन लोगों ने किया जो अपने आवास पर काव्य-गोष्ठियाँ आयोजित किया करते थे। वहीं मैने आज के प्रसिद्ध गीतकार कवि श्री गोपाल दास ’नीरज’ और उस युग के प्रसिद्ध कवि बलबीर सिंह ’रंग’ से पहली बार मुलाकात हुई थी। फिर बाद में कभी न हो सकी।
कानपुर से वापस भी हम सब उसी ’फ़ार्मूले’ से आए। इलाहाबाद स्टेशन से छात्रावास तक इक्के का किराया ,श्री कृष्ण बाबू ने ,क्षेम जी को दे दिया था । मेरा अनुमान है कि उसमें से क्षेम जी को कुछ भी नहीं बचा होगा ।
एक दिन की बात है । शाम का समय था कुछ बूँदा बाँदी हो रही थी। छात्रावास से बाहर जाने का वातावरण नहीं था।अत: क्षेम जी के कमरे के बाहर ही मण्डली जम गई।बरसाती हवा भी बह रही थी।सभी हल्के-फ़ुल्के मूड में थे।क्षेम जी ने कहा 4-5 तो हमीं लोग हैं और इस छात्रावास में 5-6 और भी अच्छे कवि हैं। अन्य छात्रावास के कवियों को मिला कर 30-32 कवि हो जाते हैं।इतने लोग जब हिन्दी काव्याकाश में उदित होंगे तो आकाश चमक उठेगा।इस पर मेरे बगल में बैठे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने कहा कि ऐसा नहीं होगा।यहाँ से जाने के बाद कितनों की काव्य-तरणी हिचकोले खा खा कर डूब जायेगी। केवल 1-2 की ही किनारे पँहुचेगी।बात जब आगे बढ़ी तो क्षेम जी ने पूछना शुरु किया कि यहाँ से जाने के बाद कौन क्या क्या करेगा? सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने कहा कि मैं तो कविता की डगर
पर चलता ज़रूर रहूँगा पर पेट-पूजा के लिए कोई नियमित और ठोस आजीविका ढूँढनी पड़ेगी। जब राजा राम मिश्र जी से यही प्रश्न किया गया तो उन्होने कहा कि मेरी भारी भरकम काया देखिए ।यह काव्य-पाठों से नहीं भरेगी और मुझे इस के लिए पूछता ही कौन है? मै तो सरकारी नौकरी करूँगा। जब यही प्रश्न अद्भुत नाथ मिश्रा जी से पूछा गया तो उनका उत्तर था कि आप लोगों को तो पता ही है कि इस समय मैं सी0ओ0डी0 [सेन्ट्रल आर्डिनेन्स डिपो] में कार्यरत हूँ ,वहाँ से हटने या हटाए जाने पर ही कुछ सोचूँगा। जब मुझसे पूछा गया तो मैने कहा कि मैं तो पुस्तक विक्रेता या प्रकाशक बनूँगा और आप की कविता संग्रहों को मैं ही प्रकाशित करूँगा।इस पर क्षेम जी ने कहा ठीक ही तो है कि मुझे कोई प्रकाशक नहीं ढूंढना पड़ेगा।आजकल कविताओं के प्रकाशक मिलते ही कहाँ हैं ।फिर मैने कहा -आप ने हम सबका तो पूछ लिया परन्तु आप ने अपना नहीं बताया ।इस पर क्षेम जी ने कहा मैं कविता की राह तो नहीं छोड़ूगा पर ठोस व सुनिश्चित आय व आजीविका के लिए अध्यापक बनना चाहूँगा। पर मैं इसे भाग्य की विडम्बना ही कहूँगा कि जो आदमी उनकी [क्षेम जी की] रचनाओं का प्रकाशक बनना चाह्ता था आज उसके पास कवि [क्षेम जी] की कृतियों की एक प्रति भी नहीं है।
आगे चल कर वही बातें सत्य साबित हुई। श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्रिका ’दिनमान’ के सम्पादक बने।श्री राजाराम जी उत्तरप्रदेश सरकार में शिक्षा विभाग में अधिकारी बने।श्री अद्भुत नाथ मिश्रा जी होम्योपैथिक डाक्टर बने और मैं वकील बना।श्री क्षेम जी माहाविद्यालय में प्रवक्ता बने।कविता की डगर पर सर्वेश्वर दयाल्ल सक्सेना जी ही कुछ चले । मैं भी कुछ चला पर मौन होकर।परन्तु सही ढंग से क्षेम जी ही चले -कृत संकल्प हो कर चलते रहे।
चलते चलाते एक और बात की चर्चा कर देना आवश्यक समझता हूँ । जौनपुर के प्रसिद्ध टी0डी0 कालेज [तिलकधारी सिंह कालेज] में इतिहास-प्रवक्ता की रिक्ति विज्ञापित हुई। हवा मैं तैरती हुई कुछ अफ़वाहों के कारण मैं प्रार्थना-पत्र देने का इच्छुक नहीं था ,पर क्षेम जी के यह कहने पर कि अफ़वाहें झूठी हैं ,ऐसा कुछ नही है । क्षेम जी के आग्रह की इस पृष्ठ भूमि में कदाचित यह भावना रही हो कि नियुक्ति हो जाने पर जन्म भर के लिए साथ हो जायेगा ।मैने प्रार्थना पत्र दे दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय द्वारा दिए गए प्राप्तांक भी अच्छे थे । मेरे साथ जितने भी लोग साक्षात्कार के लिए बुलाए गए थे और साक्षात्कार में शामिल हुए थे उन सबमें मेरा पलड़ा भारी था।साक्षात्कार समिति के कई सदस्य मेरे पक्षधर थे। श्री हृदय नारायण जी प्रधानाचार्य महोदय श्री क्षेम जी के अत्यन्त निकट के व्यक्ति थे फिर भी मुझे सफ़लता नहीं मिली। मेरी जगह ,वाराणसी के उदयप्रताप कालेज के प्रवक्ता श्री लौटू सिंह गौतम के सुपुत्र जी का चयन हो गया। जिन अफ़वाहों को क्षेम जी ने निराधार कहा था वो निराधार न होकर सही साबित हुआ। क्षेम जी बड़े दुखी हुए।उनके द्वारा बुना गया भविष्य का ताना-बाना टूट गया।उनको मैने समझाया कि यह तो मेरा ही दुर्भाग्य था कि सपने सत्य में न ढले। दुखों को आत्मसात करते हुए भारी मन से क्षेम जी ने अपने आवास से विदा किया।
आजीविकाऒं के आयाम विभिन्न होने के कारण भौगोलिक दूरियाँ बढ़ गईं।धीरे धीरे पत्रों का आना-जाना बन्द हुआ।संवाद हीनता बढ़ने लगी। अपनी ओर से संवाद हीनता का दोषी मैं स्वयं था। वकालत व्यवसाय में व्यस्तता भी एक कारण था।जहाँ तक मुझे याद है कि उनका अन्तिम पत्र उनकी पहली पत्नी की मृत्यु के कुछ दिनों बाद आया था जिसमें उनका लिखा एक वाक्य आज भी मुझे विशेष रूप से उद्वेलित कर रहा है । उन्होने लिखा था कि पत्र उसी चारपाई पर बैठ कर लिख रहा हूँ और बिस्तर भी वही है।
क्षेम जी ! मेरी भी पत्नी का देहान्त हो चुका है ,पर मैं किसे पत्र लिखूँ । आप तो चले गए । मैं लिखूँ भी तो क्या लिखूँ !पत्र पढ़ने वाला और पढ़ कर व्यथा और वेदना समझने वाले आप तो अब इस संसार में हैं नहीं । अपनी वेदना अपनी कविता के एक पंक्ति में इस प्रकार व्यक्त किया है-----
इशारे कहीं से चले आ रहे हैं
सदन छोड़ना है ,समय आ रहा है **
आजकल मेरी स्थिति इस प्रकार से हो गई है जिसे हिन्दी के एक कवि ने इस प्रकार व्यक्त किया है
प्रवाहित साँस जीता-जागता शव हूँ
इन काव्य पंक्तियों के साथ मैं कवि श्रीपाल सिंह ’क्षेम’ जी को श्रद्धांजलि के रूप में यह लेख समाप्त करते हुए ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि कवि की आत्मा को शान्ति प्रदान करें।
[नोट ** पिता जी [श्री रमेश चन्द्र पाठक ] की भी मृत्य दिनांक 09-10-2015 को हो गई
यह आलेख यहाँ भी पढ़ा जा सकता है
प्रस्तुतकर्ता
-आनन्द.पाठक-
09413395592
भाव विभोर कर देने वाला संस्मरण । सादर प्रणाम ।
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