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रविवार, 22 मई 2016

प्रतीक्षालय (एक कहानी)
एक मित्र की अंतिम संस्कार में भाग लेने हेतु मुझे उसके गाँव, अमीरपुर जाना पडा. हम दोनों एक साथ सेना में थे. सन इकहत्तर की लड़ाई में हम दोनों ने ही भाग लिया था. उस युद्ध में वह बुरी तरह घायल हो गया था. उसकी दोनों टांगें काटनी पडीं थीं. सेना से उसे सेवानिवृत्त कर दिया गया.
अमीरपुर गाँव में उसकी पुश्तैनी ज़मीन थी. वह अपने गाँव चला आया. पर साधारण खेती करने के बजाय उसने बीज पैदा करने का काम शुरू किया. कई दिक्कतें आयीं, पर वह हार मानने वाला न था.
सुचना मिली कि उसका अचानक निधन हो गया था. किसी को भी विश्वास न हुआ. सेना के कई साथी अंतिम संस्कार में भाग लेने अमीरपुर आये.
लौटने के लिए मुझे रात ग्यारह बजे राजपुर से गाड़ी लेनी थी. मैं दस बजे ही स्टेशन पहुँच गया था. वहां पहुँचने के बाद पता चला कि ट्रेन तीन घंटे की देरी से चल रही थी. मैंने अपने को कोसा, चलने से पहले ही थोड़ी पूछताछ कर लेनी चाहिये थी. अब तीन घंटे स्टेशन पर बिताने पड़ेंगे. इस बात का भी भरोसा न था कि ट्रेन के आने में कहीं और विलम्ब न हो जाए.
अपने को कोसता हुआ मैं स्टेशन के प्रतीक्षालय के भीतर आ गया. देख कर आश्चर्य हुआ कि इस छोटे से स्टेशन का प्रतीक्षालय बहुत साफ़-सुथरा था.
उस समय एक ही व्यक्ति थे जो किसी ट्रेन की प्रतीक्षा में वहां बैठे थे. देखने में वह बहुत बूढ़े लग रहे थे. वह एक कुर्सी पर चुपचाप, अपना सर झुकाए, बैठे थे. बिना कोई हलचल किये, वह ऐसे बैठे थे  की जैसे गहरी नींद में हों.   
मैं उनके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया. उन्होंने मेरी ओर देखा भी नहीं, शायद उन्हें पता ही न चला था कि कोई भीतर आया है. मैंने उनकी नींद में विघ्न डालना उचित न समझा और एक किताब निकाल कर पढ़ने लगा.
कोई आधे-पौन घंटे के उपरान्त उन्होंने धीरे से अपना सर उठाया और मेरी ओर देखा. उनका चेहरा उदास और उनकी आँखें निष्प्राण लग रहीं थीं. वह एकटक मुझे देखते रहे. मैं हौले से मुस्कुराया परन्तु उन्होंने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त न की.
‘आपको देख कर लगता है कि आप सेना के एक अधिकारी हैं?’ उनकी वाणी भी निष्प्राण थी.
‘मैं सेना का अधिकारी था, पाँच वर्ष हो गए मुझे सेना छोड़े हुए.’
‘मेरा बेटा भी सेना में है, एक सिपाही है. बहुत ही जांबाज़ आदमी है.’ वह बिना किसी हाव-भाव के बात कर रहे थे.
किस रेजिमेंट में है?’
‘पांचवीं कुमाऊँ रेजिमेंट में, उसका नाम वीरसिंह है. इकहत्तर के युद्ध में वह युद्धबंदी बन गया......’
मेरे रोंगटे खड़े हो गए. वीरसिंह तो मेरी ही यूनिट में था, ‘वह तो मेरे ही यूनिट का सिपाही था. हम एक साथ युद्ध लड़े थे......पर वह लापता हो गया था.’  
‘वह तभी से ही युद्धबंदी है.’
‘आप को कैसे पता चला?’ मैं कह न पाया कि सेना के पास ऐसी कोई पक्की जानकारी न थी.
‘मेरे बचपन का एक मित्र पकिस्तान चला गया था. उसका बेटा वहां पुलिस में है. उसने किसी की मार्फत सूचना भिजवाई थी.’
‘यह सूचना आपने सरकार या सेना.....’
‘किसी ने कुछ नहीं किया. पर वीर रिहा हो रहा है. आज ही घर लौट रहा है.’ इतना कह वह अचानक बाहर चले गए.
मैं इस घटनाक्रम से इतना हतप्रभ हो गया था कि लम्बे समय तक चुपचाप वहीं बैठा रहा. इकहत्तर के युद्ध के कई चित्र आँखों के सामने तैरने लगे.
लगभग बारह बज रहे थे. मैं प्रतीक्षालय से बाहर आया. वीर के पिता कहीं दिखाई न दिए. मन में कई प्रश्न एक साथ उमड़ रहे थे. मैं सहायक स्टेशन मास्टर से मिला. जब उन्हें पता चला कि मैं सेना का एक सेवानिवृत्त अधिकारी हूँ तो मुझे अपने दफ्तर में ले गए.
‘अभी प्रतीक्षालय में एक व्यक्ति से भेंट हुई, उनका बेटा सेना में था. मेरी ही रेजिमेंट में था वह. पकिस्तान में युद्धबंदी है. उनके विषय में कुछ जानते हैं?’
स्टेशन मास्टर ने मुझे घूर कर देखा. मुझे लगा कि मैंने कोई आपत्तिजनक बात कह दी थी.
‘वह अभी आपसे मिले? समझ नहीं आता कि वह आपसे कैसे मिले.’
‘इस में न समझने वाली बात क्या है?’
‘यह सच है कि उनका बेटा युद्धबंदी है. वही कहते थे. कई वर्षों से हर शाम स्टेशन आ रहे थे, कहते थे, “वीर रिहा हो रहा है और रात की ट्रेन से घर लौट रहा है”. पिछले वर्ष जून तक ऐसा ही हुआ. फिर वह कभी नहीं आये.’
‘क्यों?’
‘पिछले जून में उनकी मृत्यु हो गयी थी, यहीं स्टेशन के इस प्रतीक्षालय के भीतर. उस दिन भी वह आये थे और देर रात तक बेटे की राह देखते रहे थे. कुर्सी पर बैठे-बैठे ही उन्होंने प्राण त्याग दिए थे. किसी की पता न चला था. सुबह कोई भीतर आया तो समझा कि वह बैठे-बैठे सो रहे हैं. पर वह सो नहीं रहे थे. उनकी मृत्यु हो चुकी थी.’
मैं समझ न पा रहा था कि स्टेशन मास्टर मुझे एक कहानी सुना रहे थे या कोई सत्य बता रहे थी. तभी मेरी ट्रेन प्लेटफार्म आ रुकी और मैं गाड़ी पर सवार होने चल दिया.

©आइ बी अरोड़ा 

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