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शुक्रवार, 27 मई 2016

खम्बा बनाम आदमी 

मुझ जैसे बिजली के खम्बे तो आजकल बहुत कम दिखते हैं. इस महानगर में तो मुझ जैसा खम्बा शायद ही आपको दिखे. आदमी ने अब काफी तरक्की कर ली है. अब आपको दिखेंगे सीमेंट या लोहे के खम्बे. पर मेरी बात और है मुझे विधाता ने एक वृक्ष बनाया था. आदमी ने मुझे बिजली का खम्बा बना दिया. है न कितनी अजीब नियति?
लेकिन एक खम्भा बना कर भी आदमी मेरे अस्तित्व को पूरी तरह मिटा नहीं पाया है. कुछ है जो अब तक मेरे भीतर बचा हुआ है, कहीं बहुत भीतर. वैसे ही जैसे किसी झंझावात में सब कुछ ढह जाये पर कहीं बचा रह जाये किसी नन्ही चिड़िया का नन्हा-सा घोंसला. इतना ही नहीं, कभी-कभी लगता है अब तो मुझ में महसूस करने की शक्ति भी उपज आई है. शायद पहले से ही थी, पर इसका अहसास मुझे अभी ही हुआ है. अब हर बात को, जो चाहे बाहर घटे या भीतर, मैं महसूस कर सकता हूँ, ठीक वैसे ही जैसे कोई आदमी (पशु?) करता है.
जब मैं उस रूप में था जो रूप मुझे सृष्टि ने दिया था तब सब कितना अच्छा लगता था, धूप, हरियाली, पक्षियों की चहचाहट, झरने की कलकल, वर्षा की रिमझिम, गरजते बादल, आकाश के एक छोर से दूसरे छोर तक फैला इन्द्रधनुष, आसमान के किसी कोने से झांकता सूरज; सब कुछ कितना मधुर था. तब अनायास ही मन कोई गीत छेड़ दिया करता था. उन दिनों कभी कोई थका हारा पक्षी आता, मेरी किसी शाख़ पर पत्तियों की छाया में बैठ सुस्ता लेता और फिर फुर्र से उड़ जाता तो मुझे लगता कि मेरा होना कितना सार्थक है.
अब न कोई शाखा है न कोई छाया. बिजली की तारें हैं जिन में फंस कर कभी-कभार कोई प्राणी अपनी जान गवां बैठता है. मृत्यु की घड़ी में निकली उन जीवों की दारुण चीख़ें मेरे भीतर कहीं कैद हो गई है, उन चीख़ों को सुनसुन कर अब मुझे लगने लगा है कि आदमी की भांति मुझे भी दुःख का अहसास नहीं रहा. लगता है अब मैं भी आदमी जैसा हो गया हूँ. उस रोज़ की बात ही बताऊँ. उस दिन सुबह का समय था. मैं कुछ देर पहले ही नींद से जगा था.
शुरू के दिनों में मैं बहुत जल्दी जाग जाया करता था. पर अब शोर-शराबे के बावजूद मैं देर तक सो लेता हूँ ठीक वैसे ही जैसे नीचे फुटपाथ पर रहने वाले  आदमी, औरतें और बच्चे सो लेते हैं.
सुबह की हल्की धूप में मैं सड़क की चहल-पहल देख रहा था कि एक बस मेरे निकट आकर रुकी. बस से चार लड़के बाहर आये. उनमें एक लड़का दुबला-पतला सा था.  उस दुबले-पतले लड़के को एक अन्य लड़के ने दबोच रखा था. उनके उतरते ही बस चल पड़ी. बस के जाते ही तीनों लड़के दुबले-पतले लड़के को पीटने लगे. वह लड़का कुछ मिमिया रहा था और अपने को बचाने का एक निष्फल प्रयास कर रहा था.
दो लोग उधर से गुज़र रहे थे. दोनों किसी दफ्तर की बाबू जैसे दिखते थे. उनके पास आने पर सुना, एक कह रहा था, “आजकल के लड़कों का खून ज़्यादा ही गर्म है. बहुत जल्दी लड़ने-मरने पर उतर आते हैं.”
दूसरा बोला, “लगता है आज फिर अपनी बस छूट गई है, बस स्टॉप पर तो कोई दिखाई नहीं दे रहा?”
दोनों तेज़ी से स्टॉप की ओर चल दिये.
उनके जाते ही दो लोग और आते हुए दिखाई दिए. वे क्या करते हैं यह जानने को मैं उत्सुक था.
एक कह रहा था, “यहाँ इस देश में सरकार जितनी निकम्मी है और पुलिस जितनी भ्रष्ट है शायद ही किसी और देश की सरकार उतनी निकम्मी और पुलिस उतनी भ्रष्ट होगी. अब भला किसी और देश में कोई इस तरह राह चलते को कोई पीट सकता.....”
दोनों इतनी दूर निकल गये थे कि सुन न पाया कि उनकी बात कहाँ खत्म हुई.
एक-दो करके कुछ और लोग वहां से गुज़रे परन्तु किसी ने न तो कुछ कहा और न ही कुछ किया. मुझे लगा कि उन सब को एक दुबले-पतले लड़के की पिटाई करते हुए तीन लड़के दिखाई न दिये होंगे. अब इस महानगर में हर एक को इतनी जल्दी रहती है कि सब कुछ देख पाना हर किसी के लिए संभव नहीं. हर एक की अपनी ही बीसियों मुसीबतें भी तो हैं.
दो लोग और आये. थोड़ा ठिठके और रुक गये. मैं ध्यान से उन्हें देखने लगा. दोनों गहरी सोच में थे.
एक बोला, “जब तक हमारा सामाजिक ढांचा बदल न जायेगा तब तक कुछ होने वाला नहीं है. अवर सोशल सिस्टम हैस आउट लिव्ड इट्स यूटिलिटी. एक नये समाज का उत्थान होना चाहिये, एक ऐसा समाज जिसमें आदमी को आदमी की चाह हो.”
दूसरा बोला, “ आज के समाज में हम सिर्फ दूसरों को यूज़ करना जानते हैं, यूज़ एंड थ्रो. हमारे लिए दूसरे मनुष्य सिर्फ उपयोग की वस्तु हैं, नहीं भोग की वस्तु हैं यह कहना उचित होगा. वुई जस्ट एक्सपोलाइट अदर्स. हमें न किसी दूसरे से प्रेम है न किसी दुसरे की ज़रूरत.”
एक बोल, “हम सिर्फ अपने से प्रेम करते हैं. हमें सिर्फ अपनी ज़रूरत है. अन्य सब हमारी सभी इच्छाएं पूरी करने के साधन मात्र है.”
दूसरा बोला, “न जाने कब हम इस अभिशाप से मुक्त होंगे, या शायद मुक्ति हमारे भाग्य में है ही नहीं?”
धीरे-धीरे वह दोनों आगे बढ़ गये. मुझे विश्वास न हो रहा था कि इस संसार में ऐसे विचार करने वाले लोग भी हैं. उस दिन पहली बार आदमी के प्रति मेरे मन में आदर भाव जागा. पहली बार मैंने विधाता को कोसा कि उसने मुझे इतने सूक्ष्म विचारों से वंचित क्यों रखा. मैंने मन ही मन उन मनुष्यों को प्रणाम किया जिन्होंने मुझे मेरे अभाव का आभास कराया था.
अब तक दुबला-पतला लड़का इतनी बुरी तरह पिट चुका था कि वह अपना होश खो बैठा था, उसे उसी हालत में छोड़ कर तीनों लड़के एक चलती बस में चढ़ गये.
घायल लड़के को देख मुझे लगा कि अगर जल्दी ही उसकी सहायता न की गई तो वह मर भी सकता है. कुछ लोग इकट्ठे हो गये थे. पर कोई कुछ कर नहीं रहा था. सब उसे देख रहे थे.
मेरा मन इस सबसे उकता चुका था. क्या हुआ कि  कभी मैं एक वृक्ष था और मेरी डाल पर बैठ कर पक्षी सुस्ताया करते थे और सुंदर गीत गाया करते थे. आज तो मैं बस एक खम्बा भर हूँ.
घायल लड़का दम तोड़ चुका था. उसके आसपास खड़ी भीड़ कहीं लुप्त हो गयी थी. मैं चिंतित हूँ कि क्या मैं सचमुच मनुष्य जैसा हो गया हूँ.
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© आइ बी अरोड़ा 

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