मुआवज़ा (भाग १)
मैंने अपने पद का कार्यभार
सँभाला ही था की एक वृद्ध मेरे सामने आ खड़े हुए. चेहरा झुर्रियों से भरा था, बाल
सफ़ेद और बिखरे हुए थे, आँखों पर निराशा और उदासी की परत चढ़ी हुई थी.
एक सहमी हुई आवाज़
मुझ तक पहुंची, ‘सर, क्या मैं आप से कुछ
कह सकता हूँ?’
मेरे कुछ कहने के
पहले ही अनुभाग के कुछ लोग एक साथ बोल पड़े, ‘अरे बाबा, हमारा पिंड कब छोड़ोगे?
कितनी बार तुम्हें समझा चुकें हैं कि हम कुछ नहीं हो सकते पर तुम हो कि कुछ समझने
को ही तैयार नहीं हो.’
यह सब कुछ मेरे लिए
बिल्कुल अप्रत्याशित था.
‘क्या बात है?’ जैसे
ही मैंने वृद्ध से पूछा, अनुभाग के सबसे वरिष्ठ सहायक, सियाराम, ने बीच में टोकते
हुए वृद्ध से कहा, ‘तुम जो हर दिन यहाँ आ जाते हो उससे क्या नियम-कानून बदल
जायेंगे? जब एक बार कह दिया कि मुआवज़ा नहीं मिल सकता तो बार-बार आकर क्यों परेशान
करते हो?’
‘मैं तो साहब से बस
एक मिनट बात करना चाहता था,’ वृद्ध ने सहमी आवाज़ में कहा.
‘साहब ने आज ही
ज्वाइन किया है, उन्होंने अभी तुम्हारा केस नहीं देखा,’ सियाराम ने मुझसे कुछ
पूछने की आवश्यकता नहीं समझी.
मुझे अपने आप पर
क्रोध आ रहा था. आज मेरा पहला दिन था इस कार्यालय में और मैं अपनी पहली चुनौती में
असफल हो रहा था. सियाराम ऐसे व्यवहार कर रहा था जैसे मैं वहां था ही नहीं.
‘आप कुछ दिनों के
बाद मुझे मिलें. इस बीच मैं आपकी फाइल देख लूंगा,’ मैंने साहस कर कहा. सियाराम ने
घूर का मुझे देखा.
वृद्ध के जाते ही मैंने
सियाराम से ही कहा कि मुझे इस केस के विषय में बताये.
‘सर, पिछले दो
वर्षों से इसने परेशान कर के रखा है. इसके एक बेटे की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो
गई थी. बस, तब से मुआवज़े के लिए घूम रहा है. बीस से अधिक अर्ज़ियाँ दे चुका है.
राष्ट्रपति से लेकर हमारे चपरासी तक सबको अपनी फ़रियाद लिख चुका है. करोड़-पति है,
पर मरे हुए बेटे का मुआवज़ा मांग रहा है.’
बात बीच में ही रह
गई, बड़े साहब ने मुझे बुला लिया. मैं उनके समक्ष हाज़िर हुआ तो देखते ही बोले, ‘जिस
कुर्सी तक पहुँचने में मुझे बीस साल लगे थे उस कुर्सी पर तुम सीधे आकर बैठ गये हो.
यहाँ काम करना है तो अधिक होशियारी मत दिखाना. मेरे चाहे बिना यहाँ पत्ता भी नहीं
हिलता. सुना है यूनिवर्सिटी में तुम प्रथम आये थे, फिर आईएएस क्यों नहीं बन पाये?
यू पी एस सी रैंक इतना नीचे कैसे हो गया?’
बॉस की बातें आने
वाले तूफ़ान की ओर संकेत कर रही थीं. मेरे पास बस एक ही उपाये था. मुझे अपने काम को
समझ कर सही ढ़ंग से निपटाना था. काम में मैं ऐसा उलझा कि उस वृद्ध का ध्यान ही न
रहा.
लगभग एक माह बाद वह
वृद्ध फिर आये. मेरे कुछ कहने से पहले ही एक सहायक ने चिल्ला कर कहा, ‘ओ महेंद्र,
इस मुसीबत को अंदर क्यों आने दिया? तुझे कितनी बार कहा है कि इसे भीतर न आने दिया
कर. इसे समझ कुछ आता नहीं है और हमारा दिमाग चाट जाता है.’
एक माह की उठा-पटक
के बाद मैं लोगों को कुछ-कुछ समझने और पहचानने लगा था.
वृद्ध मुझ से बात
करना चाहते थे, पर एक सहायक उसे बाहर कर देने का आदेश दे रहे थे. ‘ओ महेंद्र, सुन
रहा है कि सो रहा है. इसको बाहर छोड़ कर आ.’
मैंने साहस कर कहा,
‘आप अपना काम देखें, मैं इन से कुछ बात करना चाहता हूँ.’
सहायक ने मुझे ऐसे
देखा कि जैसे मैंने उसे कोई भद्दी गाली दे दी हो. मैंने उसकी उपेक्षा करते हुए
वृद्ध से कहा, ‘आप बैठिये, क्या कहना है आपको?’
‘मैं दो वर्षों से
पागलों की तरह चक्कर लगा रहा हूँ. प्रधान मंत्री के कार्यालय से भी पत्र आया था,
गवर्नर का भी आया था. मुझे मालूम है, जानता हूँ हर जगह घूस दे कर ही कोई काम करवाया जा सकता है. पर मैं
क्या करूं? मेरे पास तो घूस देने के लिए कुछ भी नहीं है. मेरा जवान बेटा सरकारी
गाड़ी के नीचे आ कर मर गया. और आप लोग मुझे कोई मुआवज़ा देने को तैयार नहीं हो. क्या
करूं मैं? घूस नहीं दे सकता, आप कहें तो आप लोगों के घर के काम कर दिया करूंगा.
परन्तु इतना अन्याय तो न करें.’
इन शब्दों की बाढ़
में मैं न चाहते हुए भी बह गया. ध्यान आया कि सियाराम इनके केस के विषय में कुछ
बता रहा था पर शायद बात पूरी न हो पाई थी. सियाराम अभी आया न था.
‘आप मुझे थोड़ा सा
समय दें. मैं अभी नया-नया ही यहाँ आया हूँ. आपका केस देख न पाया. पर विश्वास करें
मैं स्वयं आपका केस देखूंगा.’
“देखने भर से मेरी
कोई सहायता न होगी, आप कोई रास्ता निकालें, आपकी बहुत कृपा होगी.’
हर दिन की भांति उस
दिन भी सियाराम बारह बजे के आस-पास ही आया. उसके आते ही मैंने उसे वृद्ध के केस के
बारे में पूछा. वह एक-आध घंटे के बाद एक फाइल लाया और बोला, ‘यह रही उसकी फाइल. आप
चाहें तो मैं इस केस के बारे में आपको सब कुछ बता सकता हूँ.’
उसके स्वर में उसकी
खीज साफ़ सुनाई दे रही थी पर अब मैं धीरे-धीरे इन बातों का आदि हो रहा था. जितनी कड़वी
बातें मुझे बड़े साहब की सहनी पड़ती थीं उतने ही बेरुखी अपने अनुभाग के लोगों की
झेलनी पड़ती थी. शायद यह मेरी नियति थी.
‘इस बूढ़े का नाम घनश्याम
दास है. माल रोड पर इसकी तीन मंज़िला कोठी
है. पाँच करोड़ से कम की न होगी. माल रोड पर ही तीन शो रूम हैं. सुना है हर माह
लाखों-करोड़ों की बिक्री होती है. घनश्याम दास खुद बिज़नस से रिटायर हो चुका है.
इसलिये दुकानें इसके बेटे चलाते हैं. यह घर में बैठ के बस खाता है.
‘कुछ साल पहले इसके
सबसे छोटे बेटे की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. इस का कहना है की बेटा किसी
सरकारी गाड़ी के नीचे आ कर मरा था. इस बात की कभी पुष्टि न हो पाई, न ही यह स्वयं
कोई प्रमाण दे पाया. पिछले दो-तीन वर्षों से मुआवज़े के लिए हाय-तौबा मचा रहा है.
परन्तु नियमानुसार इसे कोई मुआवजा नहीं दिया जा सकता. अगर गरीब होता तो शायद
थोड़ी-बहुत मदद की जा सकती थी. पर यह तो बहुत ही संपन्न व्यक्ति है.’
सियाराम ने जो बताया
वह अविश्वसनीय लगा. घनश्याम दास को देख कर कोई नहीं कह सकता था कि वह एक संपन्न
व्यक्ति था. उससे न तो पैसों की बू आती थी न ही उसमें वह गरिमा थी जो अकसर पैसे
वालों में होती है. वह तो हर कोण से एक दीन-हीन व्यक्ति था.
‘आपको लगता है कि वह
एक दीन-हीन आदमी है?’ सियाराम ने अपनी कुटिल आँखें मुझ पर गड़ा दीं.
मैं चुप रहा.
©आइ बी अरोड़ा
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