डायरी के पन्नों से----
[ परसों वैलेन्टाइन डे है -- हमारे सभी युवा मित्र [ और कुछ हमारी उम्र वाले भी चोरी छुपे ] अपनी पुरानी डायरी से इश्किया शायरी को धो-पोंछ कर नया रूप दे रहे होंगे।
यह व्यंग्य बहुत से पाठकों ने पढ़ा होगा. बहुत से लोगों ने नहीं भी पढ़ा होगा -उनके लिए। और जिन्होने पढ़ा होगा --वह भूल गए होंगे अबतक ।
। वैलेन्टाइन डे हर साल आता है ------मेरे इस व्यंग्य व्यथा की तरह।
भई ! कभी हम भी जवान थे--यह अलग बात है कि लगते नहीं थे।
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एक व्यंग्य : वैलेन्टाइन डे - उर्फ़ प्याज-पकौड़ी चाय
जाड़े की गुनगुनी धूप और धूप सेंकता मै।।रेडियो पर बजता गाना ....
.दो सितारों का ज़मीं पर है मिलन आज की रात
मुस्कराता है उमीदो का चमन आज की रात --
गाने के सुर में अपना सुर मिलाया ही था-
रंग लाइ है मेरे दिल की लगन की आज की रात
सारी दुनिया नज़र आती है दुलहन आज की रात
कि अचानक
"अच्छा ---बड़ी रिहर्सल चल रही है वैलेन्टाइन डे की। इतनी तैयारी पढ़ने में की होती तो आज ये कलम न घिसते ।शरम नहीं आती -उमर ढल गई रिटायर हो गए । गुलाटी मारना नहीं गया ।मैं सब समझती हूँ । उड़ती चिड़िया के पंख गिन सकती हूँ ।जब जब वैलेन्टाइन डे आता है तो मियाँ को रोमान्स याद आता है ,मस्ती चढ़ जाती है। ।रंगीन सपने आते हैं। सब समझती हूँ -संस्कारी लड़की हूँ। कोई गाय बछिया नहीं हूँ""--मुड़ कर देखा तो श्रीमती जी हैं ।गनीमत थी कि हाथ में बेलन नहीं था।
"बेगम ! तुम अब बछिया नहीं -अम्मा बन गई हो ,अम्मा । दो बच्चों की मां~ "
"हाँ हाँ मै तो अम्मा बन गई -और तुम कौन से छोकरे रह गए , बाल रंग -रंग के बछड़ा बने फिरते हो"
सुधी पाठक गण अब समझ गये होंगे कि रिटायर होने के बाद घर में मेरा गाना गाना भी गुनाह और शक की नज़र से देखा जाने लगा है ।
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उन दिनों ,जब मैं जवान था और "वैलेन्टाइन" शब्द का आविष्कार नहीं हुआ था तो अपनी एक ’किसी’ से [ जो अब भूतपूर्व हो गई है ] एक सवाल पूछा था -
जो पूछा कि होतीं क्या उलफ़त की रस्में
दीया रख गई वो हवा के मुकाबिल ।
-हम ही ’दिया’ महफ़ूज़ न रख सके ज़माने की हवाओं से ।तो उसने ’ दिया’ कहीं और बढ़ा दिया और वो किसी और की ’वैलेन्टाइन’ हो गई।
जब जब वैलेन्टाइन डे आता है तो मैं श्रीमती जी के ’सर्विलिएन्स कैमरे ’ की जद में आ जाता हूँ वैसे ही जैसे जेटली साहब की जद में नोटबन्दी के दिनों में काले धन वालों आ गए थे। श्रीमती जी को लगता है कि वैलेन्टाइन डे पर मैं किसी डेड "जन धन खाता" में पैसे डालने की तैयारी कर रहा हूँ -हफ़्ते भर हर वक़्त कड़ी नज़र रखती हैं मुझ पर किसी इनकम टैक्स वालों की तरह ।-क्या गा रहा हूँ --.किधर झाँक रहा हूँ ...क्या शायरी कर रहा हूँ..... कैसा गीत लिख रहा हूँ..... कितनी बार बाल सँवार रहा हूँ ....कितनी बार माँग निकाल रहा हूँ.... कितनी बार कपड़े पर परफ़्यूम छिड़क रहा हूँ..कौन सा ’परफ़्यूम लगा रहा हूँ ..कितनी बार मूछें तराश रहा हूँ....वग़ैरह वग़ैरह।
कल ’ग़ज़ल का फ़ाइलातुन--फ़ाइलातुन --फ़ाइलुन----रट रहा था कि पीछॆ से श्रीमती जी ने उचारा--अच्छा ! ! ......... फ़ाइलातुन--फ़ाइलातुन .. करने से ’अफ़लातुन’ नहीं बन जाओगे वैलेन्टाइन डे के दिन । दो बच्चों के बाप हो गए हो ...घर में रहों --गीता पढ़ो ..रामायण पढ़ो ..माला फेरो..राम राम जपो ...सनी लिओनी ...सनी लियोनी मत जपो .... ..वैलेन्टाइन डे तुम्हारे लिए नहीं है ---तुम्हारे लिए शास्त्रों में ’एकादशी व्रत’ है....,भगवती जागरण ,है ,.... शिव-रात्रि का प्रावधान है---।
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मेरे एक कवि-मित्र है। हमउम्र है । नाम बताना उचित नहीं ,कारण कि भाभी जी से उनको सुरक्षित रखना मेरी जिम्मेदारी है ।वैलेन्टाइन डे पर बड़ी प्रेमभरी कविता लिखते है उसे सुनाने के लिए ।दिल की दबी उचित / संकुचित भावनाएँ निकाल कर लिखते है । वैसे तो कई कवि लिखते है ,कुछ बताते हैं कुछ छुपाते हैं ,कुछ शरमाते है और कुछ दिल में दबा जाते है जैसे मैं ।औरों का नाम बताऊँ क्या ?हम कवि गण ’अर्थहीन [कविता अर्थहीन भले न हो जेब से ’अर्थहीन ही रहते हैं } अपनी वैलेन्टाइन को महँगे गिफ़्ट नहीं दे पाते हैं , सो कविता से ही आसमां से तारा तोड़ कर ला देते है ... सितारे दे देते है --जमीन दे देते हैं.. आसमान दे देते हैं । बहुत खुश हो गए तो आरा-बलिया-छ्परा -भी हिला देते है ...कौन सा अपने बाप का जाता है ....और दूसरे दिन झोला लटकाए दाढ़ी बढ़ाए सड़क पर गाते फिरते रहते है --हम ने ज़फ़ा न की थी --उस को वफ़ा न आई---पत्थर से दिल लगाया और दिल पे चोट खाई -- -- । यही कारण है कि कवियों और. शायरों की कोई परमानेन्ट वैलेन्टाइन नहीं होती ।मेरी भी नहीं है ।अगर किसी की होगी भी तो वह बतायेगा नहीं। तो भाई साहब ने बड़ा ही सुमधुर गीत लिखा था ......... गा कर जाँचा -परखा .... एक एक शब्द को सजाया ... सँवारा . ..आवाज़ में लोच पैदा की ,कमर में लोच पैदा की --कई बार खुद सुना --मुझ को सुनाया ..... कविता में जो जो मिर्च मसाला डालना था डाला इस उमीद से कि उनकी वैलेन्टाइन प्रभावित होगी ।
"भाई साहब ! बात हो गई उस से ?" -मैने पूछा
"किस से?"
"अरे उसी से जिसके लिए आप ने यह गीत लिखा है । वैलेन्टाइन डे है न परसों !!
"ही ही ही’! ’-बत्तीसी निकलते निकलते रह गई }-हे हे हे ! क्या पाठक जी-- अब कहाँ मैं ....कहाँ वैलेन्टाइन --- ये कविता तो बस वसन्त पर लिखी "वसन्ती" पर लिखी ...-प्रकॄति पर लिखी है... प्रकॄति देवी पर लिखी है ...विराट में सूक्ष्म देखता हूं--- निराकार में साकार देखता हूँ....जड़ में चेतन देखता हूँ .....
"और मैं चोर की दाढ़ी में तिनका देखता हूँ , कोई बात नही प्रभुवर ! मैं भी वैलेन्टाइन के दिनों में ऐसी ही कविता लिखता हूँ प्रकॄति पर लिखता हूँ ।ग़ज़ल लिखता हूँ इश्क़-ए-हक़ीकी पर । मगर श्रीमती जी हैं कि मानती ही नही ।"
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पिछली बार भी ऐसी ही एक कविता सुनाई थी अपनी वैलेन्टाइन को ।
इक जनम भी सनम होगा काफ़ी नहीं
इतनी बातें हैं कितनी बताऊँ तुम्हें
यह मिलन की घड़ी उम्र बन जाए तो
गीत अपने मिलन का सुनाऊँ तुम्हें
इतना सुन लिया ,बहुत था ।-बहादुर लड़की थी ।
नतीज़ा यह हुआ कि कविता सुनने के बाद आज तक वो लौटी नहीं --न जाने किस हाल में होगी बेचारी ? ।आज तक उसकी याद में दिवाना बने फिरता हूँ।
धीरे धीरे दूर हो गई ऐसी भी थी क्या मज़बूरी
पहले ऐसा कभी नहीं था हम दोनों में दिल की दूरी
काल चक्र पर किस का वश है अविरल गति से चलता रहता
अगर लिखा था नियति यही है प्रणय कथा कब होगी पूरी---जाने क्यूँ ऐसा लगता है
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पिछली बार भी वैलेन्टाइन डे मनाया था मगर ये हिन्दू सेना ,बजरंग दल वालों ने अपनी ’सुसंस्कॄति सोटा ’ से ऐसी संस्कृति लागू किया मुझ पर कि बस शहीद होते होते बचा वरना यह खाकसार -वैलेन्टाइन संस्करण-2 हो जाता। 1-2 हड्डी सीधी बची भी तो बाद में पुलिसवालों ने सीधा कर दिया ।
वैलेन्टाइन डे हर साल आता है और मुआ दिल हर बार हड्डियाँ तुड़वा कर सीधा खड़ा हो जाता है ।आखिर जवानी भी कोई चीज़ होती है । मैं नहीं तो क्या दिल तो जवान है । 2-4 डंडे 2-4 बेलन तो खा ही सकता है ।
हर बार तौबा करता हूँ , हर बार रिन्द का रिन्द हो जाता हूँ और वैलेन्टाइन डे आते आते ख़ुमार बाराबंकी साहब का शे’र गुनगुनाने लगता हूँ।
न हारा है इश्क़ और न दुनिया थकी है
दिया जल रहा है हवा चल रही है ।
और जब पुरवा हवा चलती है तो हड्डियों का एक एक जोड़ .पिछली वेलेन्टाइन डे की गवाही देता है।
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रिहर्सल चल रहा है तैयारी चल रही है लड़के ग्रीटिंग कार्ड खरीद रहे हैं लड़कियाँ ड्रेस बनवा रही है -नीतू ये देख कैसी रहेगी ? -- पिछली बार तो उसने घास ही नही डाली.. खुसट था साला ---रिया ये देख तो ये ’इयर-रिंग’ कैसी लगेगी ?---अन्तरा इधर आ न देख न...तेरा वाला तो ठरकी था लास्ट इयर ..साला चाय/काफ़ी भी मेरे ही पैसे से पी के सरक लिया .देख न ..ये..मैचिंग कैसी लगेगी...? सब यारी तैयारी में लग गए।लड़के गिफ़्ट ख़रीद रहे है---मोटर साइकिल में पेट्रोल भरवा रहे हैं--हवा-पानी चेक कर रहा है---हिन्दू संस्कृति सेना वाले लाठी में तेल पिला रहे हैं--कि इस ’अप-संस्कॄति’ को इस साल फिर पानी पिलाना है-ऐसे खींच कर लाऊँगा स्सालों को कि सब "वैलेन्टाइनपन्ती" उतर जायेगी---पुलिस वाले अपनी दूरबीन साफ़ कर रहें हैं --नज़र रखनी है झाड़ पे झाड़ियों पे --पार्कों में --खण्डहरों में --झील पर --’कजिनपन’ पनपने नहीं देना है--सब स्साले कजिन कजिन कहते रहते हैं---
इधर मैं अपनी तैयारी में लग गया ।
इस बार ऐसा गीत सुनाऊँगा ,,वो बहर-ए-तवील गाऊँगा कि अपनी वैलेन्टाइन तो क्या उसकी 2-4 सहेलियाँ भी खीची चली आयेगी .... ’एम डी एच ’ मसाले’ की तरह ....खीचा चला आए ।
गीत गुनगुना रहा था --गीत बना रहा था ---.’अन्तरा’ के लिए ...अन्तरा नहीं बन पा रहा था ....मीठी मीठे शब्द खोज खोज कर ला रहा था । जेब का खाली कवि बस शब्दों से ही मन बहलाता है और -अपनी वैलेन्टाइन को ,। और वैलेन्टाइन ऐसी कि मात्र शब्दो से नहीं बहलती [ सच्ची वैलेन्टाइन तो श्रीमती जी हैं -श्रीमती जी की बात और है शायद उनके पास कोई दूसरा ’आप्शन नहीं है ]
एक मन दो बदन की घनी छाँव में
इक क़दम तुम चलो इक क़दम मैं चलूँ
आगे की लाईन सोच ही रहा था कि--
’वाह वाह वाह वाह ’- तालियां बजी-- मुड़ कर देखा श्रीमती जी खड़ी-हैं -" घुटने का दर्द ठीक हुआ नहीं... आपरेशन कराने के पैसे नहीं ......,चलने के क़ाबिल नहीं.... - और चले हैं ’वैलेन्टाइन से कदम-ताल करने" --जाइए जाइए अपने वैलेन्टाइन के पास ....घर की खाँड़ खुरदरी लागे ,बाहर का गुड़ मीठा । शिवसेना --बजरंग दल वाले जब मरम्मत करेंगे तो ’रिपेयरिंग’ कराने यहीं लौट कर आओगे ।
अरे ! इस उमर में अब कहां जाना ,पगली ।
जीवन भर तू साथ रही ,मुझको रही सँभाल
’वेलेन्टिन ? धत ,और कोई ?जीणौ कित्तै साल ?
पगली अब और कितने साल जीना है ? अयं
फिर क्या था ! बालकनी में ही बैठ कर वैलेन्टाइन डे मना रहे है श्रीमती जी और--प्याज पकौड़ी चाय के साथ ।
"अच्छा सुन --प्यार जताते हुआ सुनाया --"’अभी हमने जी भर के देखा नहीं है ।
’अच्छा’ -तो तू भी सुन--" अभी हमने जी भर के ठोंका नहीं है ] अभी हमने जी भर के---श्रीमती जी ने सुनाया ।
क्या नहले पे दहला मारा ...क्या तुकबन्दी भिड़ाई ...क्या ’डुयेट ’ गाया आखिर बेगम किस की हो ।रेडियो पर गाना बज रहा है ---दो सितारो का "यहीं" पर है मिलन आज की रात ...दो सितारों का,,,,
अब तो बालकनी ही मेरा ’पार्क’ .....घरवाली ही मेरी वैलेन्टाइन.......प्याज पकौड़ी चाय ही मेरी ’गिफ़्ट’
दुनिया जले जलती रहे.........
अस्तु--
आनन्द.पाठक-
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