लक्ष्मण रेखायें-----पथिक
अनजाना ----488 वीं पोस्ट
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लौ तो बेचारी किस्मत की मारी जल ही रही थी
कमरे की मेहमान खुश्बू से उसे प्यार
हो गया
कैसे खुश्बू को ले आगोश में करे इजहार
प्यार
बेफिक्र खुश्बू घूमे लौ लपके बुलाये
उसे करीब
विवश लौ सीमाबंद खुश्बू सीमाहीन खेल
रहीथी
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अभी और भी -----
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (18-02-2014) को "अक्ल का बंद हुआ दरवाज़ा" (चर्चा मंच-1527) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
भावपूर्ण रचना |
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