चन्द माहिया : क़िस्त 17
:1:
दरया जो उफ़नता है
दिल में ,उल्फ़त का
रोके से न रुकता है
:2:
क्या कैस का अफ़साना !
कम तो नहीं अपना
उलफ़त में मर जाना
:3:
क्या हाल सुनाऊँ मैं
तुम से छुपा है क्या
जो और छुपाऊँ मैं
:4:
सब उनकी मेहरबानी
सागर में कश्ती
और मौज़-ए-तुगयानी
:5:
इस हुस्न पे इतराना !
दो दिन का खेला
इक दिन तो ढल जाना
-आनन्द.पाठक
09413395592
[मौज़-ए-तुगयानी =बाढ़/सैलाब की लहरें]
:1:
दरया जो उफ़नता है
दिल में ,उल्फ़त का
रोके से न रुकता है
:2:
क्या कैस का अफ़साना !
कम तो नहीं अपना
उलफ़त में मर जाना
:3:
क्या हाल सुनाऊँ मैं
तुम से छुपा है क्या
जो और छुपाऊँ मैं
:4:
सब उनकी मेहरबानी
सागर में कश्ती
और मौज़-ए-तुगयानी
:5:
इस हुस्न पे इतराना !
दो दिन का खेला
इक दिन तो ढल जाना
-आनन्द.पाठक
09413395592
[मौज़-ए-तुगयानी =बाढ़/सैलाब की लहरें]
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें